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विद्योत्तमा / प्रतिभा सिंह

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क्योंकि!
वह स्त्री थी
किन्तु शास्त्रों का ज्ञान था
और स्त्रीत्व पर अभिमान था।
तो कब सुहाई हैं
पितृसत्ता को ऐसी स्त्रियाँ
जो विदुषी हों
और स्वाभिमानी भी।
वे तो पुरुष की दासी
और पति के चरणों की धूल
बनने हेतु ही जन्मती हैं
इस मृत्युलोक से स्वर्गलोक तक।
यही सिखाया गया था अभी तक पुरुषों को
कि यदि आ गया इनमें
थोड़ा-सा ज्ञान और अभिमान
तो अस्वीकृत कर देंगी
पति को परमेश्वर मानने से
अथवा मोक्ष ही
पति की सेवा का सार जानने से।
किन्तु ऐसे ही परिवेश में
जब स्त्री के अधिकार छिनते जा रहे थे
दिनप्रतिदिन और भी अधिक
और वह सिमटती जा रही थी
पुरुष के पाँव के नीचे केवल धूल बनकर
जो चुभ रहे थे उसे हृदय पर शूल बनकर।
वह आत्महीनता से ग्रसित थी
कि पति सेवा ही मोक्ष का द्वार है
तथा पति परमेश्वर के पाँव में ही
उसका उद्धार है।
तब ऐसे में
एक स्त्री ने झुका दिया
पुरुषों के दम्भी चक्षुओं को
अपने स्त्रीत्व के तेज से।
तब अचंभित हो
जल, थल, नभ ने
प्रश्न किया एकदूसरे से
कि स्त्री और ज्ञानी...?
यदि यह सत्य है तो अनर्थ हो जाएगा
पुरुष को पूजने फिर कौन आएगा...?
जो इस धरती का देवता
और स्त्री का भाग्यविधाता है
वह याचक हो जाएगा
जो आजकल दाता है।
क्योंकि ...!
उसने प्रतिज्ञा ली थी
कि जो भी पुरुष
उसे परास्त करेगा शास्त्रार्थ में
वह उसी को सौपेंगी अपना तन-मन और
काशी नरेश की पुत्री के नाते यह सारा धन।
तो सम्पूर्ण भारतवर्ष से पधारने लगे विद्वान
वेद, वेदांग और उपनिषदों के।
किन्तु कोई न कर सका परास्त उसे ज्ञान के खेल में
इसलिए रचा गया एक षणयंत्र
बड़ी ही कुशलता से
उन पुरुषों के द्वारा जो चिढ़े हुए थे
उसकी विद्वत्ता और चपलता से।
क्योंकि परास्त हुए थे शास्त्रार्थ में
उस स्त्री से जो अजेय थी अभी तक।
और वे लज्जित थे,
तो इसलिए नहीं कि वे परास्त हुए थे
बल्कि इसलिए कि
उन्हें एक स्त्री ने परास्त किया था
और परास्त करना स्त्रियों का कार्य नहीं।
उनके लिए तो हाथ जोड़कर पति के चरणों में
नतमस्तक होना ही शुभकारी है
यदि स्वीकारता है पुरुष उसे
पत्नी के रूप में दासी समझकर
तो वह पुरुष ही उपकारी है।
क्योंकि स्त्रियों के पास स्वयं की बुद्धि, बल
और विवेक नहीं होता है
आत्महीनता से ग्रसित स्त्रियाँ भोगती हैं दासत्व
तो व्यक्ति वही काटता है, जो बोता है
अतः वह चेरी हैं पुरुषों की।
तब एक दिन उन पराजित पुरुषों ने,
जो समझते थे खुद को प्रकांड विद्वान
स्त्री के द्वारा हराये जाने के अपमान से व्याकुल हो
खोजने निकले एक ऐसा मूर्ख
जिससे छलपूर्वक उस विदुषी का ब्याह कराया जाए
ताकि उसका मानमर्दन कर
उस मूर्ख पुरुष के पैरों में उसे कुशलता से झुकाया जाए।
और खोज ही निकाला अंततः एक ऐसा जड़बुद्धि
जो जिस डाल पर बैठा था उसी को काट रहा था
पता नहीं था उसे,
कि वह अपने ही जीवन की खाई पाट रहा था।
उन दम्भी पुरुषों की आंखों में
आशा की किरण उठी
कि ऐसे मूर्ख के हाथों सौंपकर उस विदुषी को
अपने अपमान का प्रतिशोध लेंगे
और फिर कभी,
पुरुष को हराने का दुस्साहस न करे
यह भारतवर्ष की स्त्रियों को सन्देश देंगे।
और ले आये उस मूर्ख को
उस विदुषी के दरबार में खूब समझा-बुझाकर
किसी राजकुमार की भांति सजाकर
शास्त्रार्थ हेतु।
कि यह भारतवर्ष के प्रकांड विद्वान हैं
किन्तु मौन व्रतधारी।
स्त्रियाँ छली जाती रही हैं हरबार चालाक पुरुषों के द्वारा
अपनी भावुकता और संस्कार के कारण।
इस बार भी छली गई स्त्री वह भले ही विदुषी थी
किन्तु नहीं समझ पाई पुरुषों की नीचता को
और शास्त्रार्थ हेतु तत्पर हुई माता-पिता को प्रणामकर।
जो कबसे पुत्री के हारने की बाट देख रहे थे
और पुत्री के पुरुष के पैरों में नत होने की
कल्पना से ही वे आँखें सेक रहे थे।
उस विदुषी ने धर्मसंकट से बचने हेतु कहा
क्योंकि आज विद्वान पुरुष का मौन व्रत है
अतः वह भी संकेत में ही प्रश्न करेगी
वह भी मात्र दो।
दम्भी पुरुष मुस्कुराए कि जीत उनकी ही होगी अब।
तो वेदान्त से प्रथम प्रश्न किया विदुषी ने
हाथ की एक उंगली दिखाकर
जिसके बदले में उस मूर्ख ने दो उंगलियाँ दिखाईं
जिसकी व्याख्या में दम्भी विद्वानों ने कहा
"कि आप एक उँगली के संकेत से कह रही हैं ईश्वर एक है
और हमारे विद्वान सखा कह रहे हैं यह सत्य है
किंतु उसका स्वरूप दो है साकार और निराकार।"
विदुषी सन्तुष्ट हुई क्योंकि उत्तर सही था
किन्तु वह निश्छल यह न समझ पाई कि वह मूर्ख
उसकी दोनों आँखे फोड़ने का संकेत दे रहा था
भला जड़बुद्धि क्या जाने साकार और निराकार।
विदुषी ने दूसरा प्रश्न किया खुले हाथ दिखाकर
बदले में उस मन्द ने मुट्ठी बन्द कर ली
जिसकी व्याख्या में विद्वान पुरुषों ने कहा
" आप कह रही हैं कि सृष्टि में पंचमहाभूत हैं
अतः हमारे विद्वान सखा कह रहे हैं
जिनके संगठित हो जाने से ही सृष्टि की सँरचना हुई है। "
विदुषी आनंदित हुई
आज हारी थी प्रथम बार किसी पुरुष से
स्त्रियों को पराजित होना अच्छा लगता है उस पुरुष से
जिसे वह सौपती है जीवन, सर्वस्व मानकर
ताकि बना रहे उनका प्रेम और दाम्पत्य।
और वह सगर्व चल सके सिर उठाकर।
वह शासित से नहीं शासक से प्रेम करती है
और शासक वही है जो उसे परास्त करे
किन्तु सखा बनकर।
परन्तु वह पुरुष नहीं जान सकता है
स्त्री के हृदय की विशालता को
जो दम्भी और स्वर्थी है।
शीघ्र ही खुल गया रहस्य
पुरुषों के षणयंत्र का
और अस्वीकार कर दिया विदुषी ने
मूर्ख को पति परमेश्वर मानने से।
जो हाड़-मांस का पिंड हो वह मनुष्य कैसा...?
पुरुष यदि मूर्ख भी हो तो
स्त्री से अपमानित होना स्वीकार नहीं कर पाता
इसलिए निकल गया ज्ञान की प्यास लिए
भविष्य में विदुषी का दम्भ तोड़ने की आस से।
और अंत में वह हो गया कविश्रेष्ठ भारतवर्ष का
नाम था कालिदास।
तब विदुषी ने उसे सहर्ष अपनाया नतमस्तक होकर
कि स्त्रियाँ स्वतः ही परास्त हो जाती हैं
श्रेष्ठ के आगे उसकी दासी बनकर न सही
सखा बनकर ही।
क्योंकि वह ढूँढती है आधार
ठीक वैसे ही
जैसे मजबूत वृक्षों से लताएँ लिपटती हैं
निश्छल भाव से।
हार जाना स्त्री की नियति नहीं, महानता है
जिसे हराने वाला ही जानता है।
स्त्री ज्ञान पर दम्भ नहीं करती
इसलिए विदुषी होकर भी
किसी धर्म की स्थापना नहीं करती।
वह तो केवल हारना चाहती है
उस पुरुष से
जिसे वह प्रेम कर सके समर्पित होकर।
यदि पुरुष स्वयं को योग्य सिद्ध कर सके
और वह स्त्री के मनोभावों को पढ़ सके
कि यह सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ रचना है
जिसे दम्भ से नहीं
ज्ञान से जीता जा सकता है
किन्तु प्रेमपूर्वक।