भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
विद्योत्तमा / रविकान्त
Kavita Kosh से
एक-एक कर
तुम मेरी सब चीजें लौटाने लगी
मुझे लगा कि हमारा प्रेम टूट रहा है
जबकि, कभी नहीं किया था हमने प्रेम
मैं करना चाहता था प्रेम, पूरी शिद्दत से
पर नहीं मिली तुम
तुम दिखी ही नहीं फिर कभी
मैं दौड़ आना चाहता था तुम्हारी ओर
लिपट जाना चाहता था तुमसे
अपने ताने-बाने में
मैं ऐसा था ही,
तुम क्या
किसी को भी अधिक नहीं रुच सकता था मैं
तुम न जाने अब, क्या सोचती होगी?
प्रिय और निरीह हूँगा मैं तुम्हारे निकट
शायद, मेरा हाल जान लेने को
उत्कट होती होगी तुम,
मेरी ही तरह
हालाँकि मैं कह नहीं सकता कि तुम गलत थीं...
मैंने जो खुट-खट शुरू की थी
मैं बहुत उलझ गया हूँ इसमें
मेरे रोएँ भी बिना गए हैं इन्हीं धागों में
मैं बहुत ढल गया हूँ
तुम्हारे बिना