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विधवा का दर्पण / रामनरेश त्रिपाठी

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(१)
एक आले में दर्पण एक, किसी प्रणयी के सुख का सगा।
किसी के प्रियतम का स्मृति-चिह्न, किन्हीं सुंदर हाथों का रखा॥
धूल की चादर से मुँह ढाँक, पड़ा था भार लिए मनका।
मूक भाषा में हाहाकार, मचा था उसके क्रंदन का॥
(२)
दीमकों ने उसके सब ओर, कोरकर अपनी मनोव्यथा।
बना दी थी उस आदरहीन, दीन की अतिशय करुण कथा॥
मकड़ियाँ उस पर जाले तान, म्लान कर मुख की सुंदरता।
दिखाती थी करके विस्तार, रूप-मद की क्षण-भंगुरता॥
(३)
मुकुर यों कहने लगा सशोक, रोक कर मेरी मति गति को।
मनुज का मिथ्या है अभिमान, जानकर मेरी दुर्गति को॥
कभी दिन मेरे भी थे हाय, मुझे लेकर प्रिय ने कर में।
प्रियतमा को था अर्पण किया, रीझ कर उस सूने घर में॥
(४)
देखने को उसके अनमोल, गाल पर लोलुपता लटकी।
रसीली चितवन का उन्माद, मनोहरता मुसकाहट थी॥
प्रियतमा ने पाकर एकांत, चूमकर हर्ष मनाया था।
जानकर प्रियतम की प्रिय वस्तु, हृदय से मुझे लगाया था॥
(५)
एक मुग्धा के कोमल हाथ, पोंछते थे मेरे मुख को।
हार पहनाते थे कर प्यार, कहूँ मैं कैसे उस सुख को॥
कामिनी करके जब शृंगार, पास प्रियतम के जाती थी।
प्रथम मेरी अनुमति के लिए, निकट मेरे नित आती थी॥
(६)
सभी अंगों में उसके नित्य, छलकता था मद यौवन का।
अजब था रंग प्रेम से तृप्त, अधखुले कंज-विलोचन का॥
अधर पर उसके मृदु मुस्कान, निरंतर क्रीडा करती थी।
दृगों में प्रियतम की छवि नित्य, बिना विश्राम विचरती थी॥
(७)
दूध की सरिता-सी अति शुभ्र, पंक्ति थी दाँतों की ऐसी।
जुड़ी हो तारापति के पास, सभा ताराओं की जैसी॥
मनोहर उसका अनुपम रूप, हृदय प्रियतम का हरता था।
जभी मिलती थी, मैं जी खोल, प्रशंसा उसकी करता था॥
(८)
कभी प्राणेश्वर के गल-बाँह, डालकर वह मुस्काती थी।
गाल से प्रिय का कंधा दाब, खड़ी फूली न समाती थी॥
कराती थी वह मुझसे न्याय, “मुकुर! निष्पक्ष सदा तुम दो।
अधिक किसके मन में है प्रेम, हमारी आँखें देख कहो”॥
(९)
गर्व उसका सुन अधर, कपोल, चिबुक को अगणित चुंबन से।
तृप्त कर प्रणयी निज सर्वसव, वारता था विमुग्ध मन से॥
देखता था मैं नित यह दृश्य, मुझे निद्रा कब आती थी।
हृदय मेरा खिल उठता था, सामने वह जब आती थी॥
(१०)
हृदय था उसका ऐसा सरल, प्रकृति में भी थी सुंदरता।
वसन तन वदन देखकर मलिन, कभी मैं निंदा भी करता॥
मानती थी न बुरा तिलमात्र, न आलस या हठ करती थी।
स्वच्छ सुंदर बनकर तत्काल, देखकर मुझे निखरती थी॥
(११)
काम में रहती थी नित व्यस्त, न वह क्षणभर अलसाती थी।
ध्यान में प्रियतम के नित मस्त, इधर जब आती जाती थी॥
ठहरकर आँचल से मुँह पोंछ, प्यार से देख विहँसती थी।
देखती थी आँखों में मूर्ति, प्राणधन की जो बसती थी॥
(१२)
रहे थोड़े ही दिन इस भाँति, परम सुख से दोनों घर में।
अचानक यह सुन पड़ी पुकार, राष्ट्रपति की स्वदेश भर में॥
“कष्ट अब पर-पद-दलित स्वदेश-भूमि में अंतिम सहने को।
चलो वीरो, बनकर स्वाधीन, जगत में जीवित रहने को”॥
(१३)
प्रियतमा का वह प्राणाधार, मनस्वी युवकों का नेता।
राष्ट्रपति की पुकार को व्यर्थ, भला वह क्यों जाने देता॥
बड़ा भावुक था उसका हृदय, निरंतर मग्न वीर-रस में।
देश पर मरने का उत्साह, भरा था उसकी नस-नस में॥
(१४)
सुखों का बंधन क्षण में तोड़, देश के प्रति अति आदर से।
राष्ट्रपति की पुकार पर वीर, प्रथम वह निकला था घर से॥
तभी से वह अबला दिनरात, घोर चिंता में बहती थी।
विजय की ख़बरों को दे कान, प्रतीक्षा में नित रहती थी॥
(१५)
एक दिन बड़े हर्ष के साथ राष्ट्रपति ने स्वदेश भर में।
घोषणा की कि, “वीर ने घोर, युद्ध कर भीषण संगर में॥
विजय हम सबको देकर पूर्ण, चूर्ण कर रिपुओं के मद को।
छोड़कर यह नश्वर संसार, प्राप्त कर लिया परमपद को”॥
(१६)
उसी दिन उसी घड़ी से हाय, न मैंने फिर उसको देखा।
कहाँ छिप गई अचानक हाय, रूप की वह अनुपम रेखा॥
न तब से फिर आई इस ओर, भूल करके भी वह बाला।
पवन ने मेरे मुँह पर धूल झोंक अंधा भी कर डाला॥
(१७)
दुलारों में नित पाली हुई, प्रेम की प्रतिमा वह प्यारी।
खिलौना इस घर की वह हाय, कहाँ है सरला सुकुमारी॥
अरे! मेरी यह दीन-पुकार, कहीं यदि सुनता हो कोई।
मुझे दिखला दे मेरा प्राण, जगा दे फिर किस्मत सोई॥
(१८)
नहीं तो कर दे कोई मुक्त, विरह-ज्वर से सत्वर मुझको।
मिटा दे मेरा यह अस्तित्व, पटककर पत्थर पर मुझको॥
न जाने कब से चिंता-मग्न, विरह-विधुरा, भूखी-प्यासी।
कहाँ होगी वह विह्वल व्यथित, हाय! करुणा की कविता-सी॥