विनयावली(अंतिम पद)
278
पनव-सुवन! रिपु-दवन! भरतलाल! लखन! दीनकी।
निज निज अवसर सुधि किये, बलि जाउँ, दास-आस पूजि है खासखीनकी।1।
 
राज-द्वार भली सब कहै साधु-समीचीनकी।
 
सुकृत-सुजस, साहिब-कृपा, स्वारथ-परमारथ, गति भये गति-बिहीनकी।2। 
समय सँभारि सुधारिबी तुुलसी मलीनकी। 
प्रीति-रीति समुझाइबी रतपाल कृपालुहि परमिति पराधीनकी।3।
 
279
मारूति-मन, रूचि भरतकी लखि लषन कही है। 
कलिकालहु नाथ! नम सों परतीत प्रीति एक किंकरकी निबही है।1। 
सकल सभा सुति लै उठी, जानी रीति रही है।
 
कृपा गरीब निवाजकी, देखत गरीबको साहब बाँह गही है।2।
 
बिहंसि राम कह्यो ‘सत्य है, सुधि मैं हूँ लही है’। 
मुदित माथ नावत, बनी तुलसी अनाथकी, परी रधुनाथ/(रघुनाथ हाथ) सही है।3।