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विनयावली / तुलसीदास / पद 51 से 60 तक / पृष्ठ 5

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पद संख्या 59 तथा 60

(59),
देव-
दीन-उद्धरण रघुवर्य करूणाभवन शमन-संताम पापौघहारी।
 विमल विज्ञान-विग्रह, अनुग्रहरूप, भूपवर, विवुध,नर्मद, खरारी।1।

संसार-कांतार अति घोर, गंभीर,घन गहन तरूकर्मसंकुल , मुरारी।
वासना वल्लि खर-कंटकाकुल विपुल, निबिड़ विटपाटवी कठिन भारी।।2

विविध चितवृत्ति-खग निकर श्येनोलूक, काक वक गृध्र आामिष-अहारी।
अखिल खल निपुण छल , छिद्र निरखत सदा, जीवजनपथिकपन-खेदकारी।।

क्रोध-करिमत्त, म्रगराज , कंदर्प ,मद दर्प वूक-भालु अति उग्रकर्मा।
 महिष मत्सर क्रूर,लोभ शूकररूप, फेरू छल, दंभ मार्जारधर्मा।4।

कपट मर्कट विकट, व्याघ्र पाखण्डममुख, दुखद मृगव्रात, उत्पातकर्ता।
हृदय अवलोकि यह शोक शरणागतं, पाहि मां पाहि भो विश्वभर्ता।5।

प्रबल अहंकार दुरहट महीधर, महामोह गिरि-गुहा निबिड़ांधकारं।
 चित्त वेताल, मनुजाद मन प्रेतगन रोग, भोगौघ वृश्चिक-विकारं।6।

विषय -सुख-लालसा- दंश-मशकादि, खल झिल्लि रूपादि सब सर्प, स्वामी।
तत्र आक्षिप्त तव विषम माया नाथ,अंध मैं मंद, व्यालादगामी।7।

घोर अवगाह भव आपगा पापजलपूर, दुश्प्रेक्ष्य, दुस्तर,अपारा।
मकर षड्वर्ग, गोनक्र चक्राकुला , कूल शुभ -अशुभ , दुख तीव्र धारा।8।

 सकल संघट पोच शोच सर्वदा दासतुलसी विषम गहन ग्रस्तं।
त्राहि रघुवंशभूषण कृपा कर, कठिन काल विकराल -कलित्रास -त्रस्तं।9।

(60)
 
देव नौमि नारायणं नरं करूणायनं, ध्यान-पारायणं,ज्ञान-मूलं।
अखिल संसार-उपकार- कारण, सदयहृदय, तपनिरत, प्रणतानुकूलं।1।

श्याम नव तामरस-दामद्युति वपुष, छवि कोटि मदनार्क अगणित प्रकाशं।
तरूण रमणीय राजीव-लोचन ललित, वदन-राकेश, कर-निकर-हायं।2।

सकल सौंदर्य-निधि, विपुल गुणधाम, विधि-वेद-बुध-शंभु-सेवित, अमानं।
अरूण पदकंज-मकरंद-मंदाकिनी मधुप -मुनिवृंद कुर्वन्ति पानं।3।

शक्र-प्रेरित घेार मदन मद-भंगकृत, क्रोधगत, बोधरत, ब्रह्मचारी।
मार्कण्डेय मुतिवर्यहित कौतुकी बिनहि कल्पांत प्रभु प्रलयकारी।4।

पुण्य वन शैलसरि बाद्रिकाश्रम सदासीन पद्मासनं, एक रूपं।
सिद्ध-योगींद्र-वृंदारकानंदप्रद,भद्रदायक दरस अति अनूपं।5।

मान मनभंग, चितभंग मद ,क्रोध लोभादि पर्वतदुर्ग, भुवन -भर्ता।
द्वेष -मत्सर-राग प्रबल प्रत्यूह प्रति, भूरि निर्दय, क्रूर कर्म कर्ता।6।

विकटतर वक्र क्षुरधार प्रमदा, तीव्र दर्प कंदर्प खर खड्गधारा।
 धीर-गंभीर-मन-पीर-कारक, तत्र के वराका वयं विगतसारा।7।

 परम दुर्घट पथं खल-असंगत साथ, नाथ! न्हिं हाथ वर विरति -यष्टी।
दर्शनारत दास,त्रसित माया-पाश, त्राहि हरित्र त्राहि हरि,दास कष्टी।8।
 
दासतुलसी दीन धर्म-संबलहीन, श्रमित अति,खेद, मति मोह नाशी।
देहि अवलंब न विलंब अंभोज-कर, चक्रधर-तेजबल शर्मराशी।9।