विनिमय / महादेवी वर्मा
छिपाये थी कुहरे सी नींद,
काल का सीमा का विस्तार;
एकता में अपनी अनजान,
समाया था सारा संसार।
मुझे उसकी है धुँधली याद,
बैठ जिस सूनेपन के कूल,
मुझे तुमने दी जीवनबीन,
प्रेमशतदल का मैंने फूल।
उसी का मधु से सिक्त पराग,
और पहला वह सौरभ-भार;
तुम्हारे छूते ही चुपचाप,
हो गया था जग में साकार।
--और तारों पर उंगली फेर,
छेड़ दी जो मैंने झंकार,
विश्व-प्रतिमा में उसने देव!
कर दिया जीवन का संचार।
हो गया मधु से सिन्धु अगाध,
रेणु से वसुधा का अवतार;
हुआ सौरभ से नभ वपुमान,
और कम्पन से बही बयार।
उसी में घड़ियां पल अविराम,
पुलक से पाने लगे विकास;
दिवस रजनी तम और प्रकाश,
बन गए उसके श्वासोच्छवास।
उसे तुमने सिखलाया हास,
पिन्हाये मैंने आँसू-हार;
दिया तुमने सुख का साम्राज्य,
वेदना का मैंने अधिकार!
वही कौतुक—रहस्य का खेल,
बन गया है असीम अज्ञात;
हो गई उसकी स्पन्दन एक,
मुझे अब चकवीं की चिर रात!
तुम्हारी चिरपरिचित मुस्कान,
भ्रान्त से कर जाती लघु प्राण;
तुम्हें प्रतिपल कण कण में देख,
नहीं अब पाते हैं पहिचान!
कर रहा है जीवन सुकुमार,
उलझनों का निष्फल व्यापार;
पहेली की करते हैं सृष्टि,
आज प्रतिपल सांसों के तार।
विरह का तम हो गया अपार
मुझे अब वह आदान प्रदान;
बन गया है देखो अभिशाप,
जिसे तुम कहते थे वरदान!