विरक्ति / कालीकान्त झा ‘बूच’
क्षण भंगुर संसार सजनि गय एहि ठाँ दुःखक पहाड़ भरल अछि,
नोरक निरझर धार सजनि गय उमड़ल बनल दहाड़ चलल अछि।
बचा सकब कहू कोना आनकेँ, हम तँ अपने डूमि रहल छी।
हँसा सकब कहू कोना आनकेँ, सिंगड़हार भऽ चूबि रहल छी।
सजनि गय हिस्सक सागर खार बनल अछि, नोरक...।
मृगी जकाँ हम काँपि रहल छी, झाँखुरसँ तन झाँपि रहल छी।
देखि-देखि संधान सायकक, आयुक छाँटी मापि रहल छी।
करब कोना पथपार सजनि गय ठाम-ठाम सौतार भरल अछि,
नोरक निरझर धार सजनि गय उमड़ल बनल दहाड़ चलल अछि।
विरहक शून्य सुदूर देशमे, दिवसक कठिन करेज जड़ल अछि।
रजनी अछि जोगिनीक वेषमे, आंचर तर लुत्ती पसरल अछि।
चिर-वियोगक भार सजनि गय लऽ कऽ कहार चलल अछि,
नोरक निरझर धार सजनि गय उमड़ल बनल दहाड़ चलल अछि।
कवि एहि कविताक रचना सन् १९९० ई. मे अप्पन अर्धांगिनीक मृत्युक वियोग में कएलनि।