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विराटता का स्वप्न / जया जादवानी

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और मैंने उसे खो ही दिया आख़िरकार
बहुत दिन रखा पिंजरे में सम्भालकर
खिलाई हरी मिर्चें और
भीगे चने रोज़
बचाया बिल्ली के नुकीले पंजों से
रखा सबसे ऊपर टाँग कर
जब भी बोलता, एक भी शब्द तुतलाता
मारे ख़ुशी के नींद नहीं आती रातभर
देखा धीरे-धीरे भूल गया
उड़ने की चाहत
भूला कोशिशें
सीखा स्वीकारना नियति को ज्यों का त्यों
फिर एक दिन छोड़ा फ़र्श पर तो जाना
अब न ख़ुद उड़ सकता, न उड़ा सकता मुझे
मैं क्या करती, मैंने उसे
मुक्त आकाश में छोड़ा स्वच्छन्द
कुछ दिन वो सामने वाले वृक्ष की शाख़ पर
बैठा टुकुर-टुकुर ताकता छूटे हुए को
अनन्त आकाश में
वह उड़ा और
आया नहीं लौटकर
जाना
विराटता का स्वप्न
सबसे पहले
माँगता है कीमत
ख़ुद अपनी।