विराट् नृत्य / श्यामनन्दन किशोर
गगन नाचता, पवन नाचता, यों सारा संसार नाचता
मैं कवि हूँ, मेरे गीतों में घुँघरू बाँध प्यार नाचता।
सबको नाच नचाने वाला
खुद भी करता है ता थैया।
पैरों पर नाचे वृन्दावन
सिर पर नाचे कुँवर कन्हैया।
होठों पर इनकार ठुमकता, आँखों में इकरार नाचता।
नाचे खुदा कि बन्दा नाचे
नाचे सूरज, चन्दा नाचे
नाचे मुक्त साधु-संन्यासी
औ चौरासी फन्दा नाचे।
एक बार मन-मोर नाचता, पोर-पोर सौ बार नाचता।
अष्टकमल पर डोल रहे हैं
ध्यान लगाये गहन कबीरा,
पिये प्रेम की हाला कब से
बेसुध नाच रही है मीरा
घरवैया थिर बैठेकैसे, जब है आँगन-द्वरा नाचता।
वह भी क्या कवि, नहीं नचाती
शब्द-शब्द को जिसकी तड़पन
वह भी क्या छवि जिस पर होता
नहीं, मुग्ध नयनों का नर्त्तन।
एक नर्त्तकी के चितवन पर मुकुटों का अधिकार नाचता।
तुम क्यों बैठे हो मन मारे।
तुम्हें नाचना होगा प्यारे।
मोह तुम्हें थिरकायेगा ही
बाजी तुम जीते या हारे।
पथिक नाचता, पंथ नाचता- यों सारा आधार नाचता।
लुटने वाला नाच रहा है, साथ-साथ बटमार नाचता।
(1.3.74)