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विरुद्धों के सामंजस्य का पराभौतिक अंतिम दस्तावेज / कुमार अनुपम

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पुरखों की स्मृतियों और आस और अस्थियों
पर थमी थी घर की ईंट ईंट
ऊहापोह और अतृप्ति का कुटुंब
वहीं चढ़ाता था अपनी तृष्णा पर सान

एक कबीर अपनी धमनियों से बुनने की
मशक्कत में एक चादर निर्गुन पुकार में
बदल जाता था बारबार
कि सपनों की निहंगम देह के बरक्स
छोटा पड़ जाता था हरबार आकार

कि अपनी बरौनियों से भी घायल होती है आँख

बावजूद इसके, जो था, एक घर था :
विरुद्धों के सामंजस्य का पराभौतिक अंतिम दस्तावेज

बीसवीं सदी के बिचले वर्षों में
स्मृतियाँ और स्वप्न जहाँ दिख रहे हैं
सहमत सगोतिया पात्र
अलबम की तसवीर है अब मात्र

फासलों को पाटने की
वैश्विक कारसेवा में बौखलाया था
जब सारा जहान
दिखा, तभी पहली पहली दफा अतिस्पष्ट
देखकर भी जिसे
किया जाता रहा था अदेखा

शिष्टता के पश्चात्ताप का छछंद

और दीवारों और स्मृतियों से
एक एक कर उधड़ते गए
बूढ़ी त्वचा के पैबंद
गुमराह आँधियों के जोर से फटते गए आत्मा के घाव
और
इक्कीसवीं सदी का अवतार हुआ
मध्यवर्गीय इतिहास के तथाकथित अंत के उपरांत

कुछ तालियाँ बजीं कुछ ठहाके गूँजे नेपथ्य से
कुछ जश्न हुए सात समुंदर पार
एक वैश्विक गुंडे ने डकार खारिज की
राहत की सुरक्षित साँस ली
अनावश्यक और बेवजह

घटित हुआ
प्रतीक्षित शक
कि घटना कोई
घटती नहीं अचानक
किश्तों में भरी जाती है हींग आत्मघाती
सूखती है धीरे धीरे भीतर की नमी
मंद पड़ता है कोशिकाओं का व्यवहार
धराशायी होता है तब एक चीड़ का छतनार

धीरे धीरे धीरे लुप्त होती है एक संस्कृति
एक प्रजाति
षड्यंत्र के गर्भ में बिला जाती है

खैर को जुमले की तरह प्रयोग करने से बचता है एक कवि
अपनी चहारदीवारी में लौटने से पहले
कि कुटुंब की अवधारणा ही अपदस्थ
जब घर की नई संकल्पना से
ऐसे में
गल्प से अधिक नहीं रह जाता
यह यथार्थ