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{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
}}
:::माना मैंने मिट्टी, कंकड़, पत्थर, पूजा,
:::अपनी पूजा करने से तो मैं बाज़ रहा।
दर्पन से अपनी चापलूसियाँ सुनने की
सबको होती है, मुझको भी कमज़ोरी थी,
लेकिन तब मेरी कच्ची गदहपचीसी थी,
तन कोरा था, मन भोला था, मति भोरी थी,
::है धन्यवाद सौ बार विधाता जिसने
::दुर्बलता मेरे साथ लगा दी एक और;
:::माना मैंने मिट्टी, कंकड़, पत्थर, पूजा,
:::अपनी पूजा करने से तो मैं बाज़ रहा।
धरती से लेकर जिसपर तिनके की चादर,
अंबर तक, जिसके मस्तक पर मणि-पाँती है,
जो है, सब में मेरी दयमारी आँखों को,
जय करने वाली कुछ बातें मिल जाती हैं,
::खुलकर, छिपकर जो कुछ मेरे आगे पड़ता
::मेरे मन का कुछ हिस्सा लेकर जाता है,
:::इस लाचारी से लुटने और उजड़नेवाली
:::हस्ती पर मुझको लम्हा नाज़ रहा।
:::माना मैंने मिट्टी, कंकड़, पत्थर, पूजा,
:::अपनी पूजा करने से तो मैं बाज़ रहा।
यह पूजा की भावना प्रबल है मानव में,
इसका कोई आधा बनाना पड़ता है,
जो मूर्ति और की नहीं बिठाता है अंदर
उसको खुद अपना बुत बिठलाना पड़ता है;
::यह सत्य, कल्पतरु के अभाव में रेंड़ सींच
::मैंने अपने मन का उद्गगार निकाला है;
:::लेकिन एकाकी से एकाकी घड़ियों में
:::मैं कभी नहीं बनकर अपना मोहताज रहा।
:::माना मैंने मिट्टी, कंकड़, पत्थर, पूजा,
:::अपनी पूजा करने से तो मैं बाज़ रहा।
अब इतने ईंटें, कंकड़, पत्थर बैठ चुके,
वह दर्पण टूटा, फूटा, चकनाचूर हुआ,
लेकिन मुझको इसका कोई पछताव नहीं
जो उसके प्रति संसार सदा ही क्रूर हुआ;
::कुछ चीज़ें खंडित होकर साबित होती हैं;
::जो चीज़ें मुझको साबित साति करती है,
:::उनके ही गुण तो गाता मेरा कंठ रहा,
:::उनकी ही धून पर बजता मेरा साज़ रहा।
:::माना मैंने मिट्टी, कंकड़, पत्थर, पूजा,
:::अपनी पूजा करने से तो मैं बाज़ रहा।
{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
}}
:::माना मैंने मिट्टी, कंकड़, पत्थर, पूजा,
:::अपनी पूजा करने से तो मैं बाज़ रहा।
दर्पन से अपनी चापलूसियाँ सुनने की
सबको होती है, मुझको भी कमज़ोरी थी,
लेकिन तब मेरी कच्ची गदहपचीसी थी,
तन कोरा था, मन भोला था, मति भोरी थी,
::है धन्यवाद सौ बार विधाता जिसने
::दुर्बलता मेरे साथ लगा दी एक और;
:::माना मैंने मिट्टी, कंकड़, पत्थर, पूजा,
:::अपनी पूजा करने से तो मैं बाज़ रहा।
धरती से लेकर जिसपर तिनके की चादर,
अंबर तक, जिसके मस्तक पर मणि-पाँती है,
जो है, सब में मेरी दयमारी आँखों को,
जय करने वाली कुछ बातें मिल जाती हैं,
::खुलकर, छिपकर जो कुछ मेरे आगे पड़ता
::मेरे मन का कुछ हिस्सा लेकर जाता है,
:::इस लाचारी से लुटने और उजड़नेवाली
:::हस्ती पर मुझको लम्हा नाज़ रहा।
:::माना मैंने मिट्टी, कंकड़, पत्थर, पूजा,
:::अपनी पूजा करने से तो मैं बाज़ रहा।
यह पूजा की भावना प्रबल है मानव में,
इसका कोई आधा बनाना पड़ता है,
जो मूर्ति और की नहीं बिठाता है अंदर
उसको खुद अपना बुत बिठलाना पड़ता है;
::यह सत्य, कल्पतरु के अभाव में रेंड़ सींच
::मैंने अपने मन का उद्गगार निकाला है;
:::लेकिन एकाकी से एकाकी घड़ियों में
:::मैं कभी नहीं बनकर अपना मोहताज रहा।
:::माना मैंने मिट्टी, कंकड़, पत्थर, पूजा,
:::अपनी पूजा करने से तो मैं बाज़ रहा।
अब इतने ईंटें, कंकड़, पत्थर बैठ चुके,
वह दर्पण टूटा, फूटा, चकनाचूर हुआ,
लेकिन मुझको इसका कोई पछताव नहीं
जो उसके प्रति संसार सदा ही क्रूर हुआ;
::कुछ चीज़ें खंडित होकर साबित होती हैं;
::जो चीज़ें मुझको साबित साति करती है,
:::उनके ही गुण तो गाता मेरा कंठ रहा,
:::उनकी ही धून पर बजता मेरा साज़ रहा।
:::माना मैंने मिट्टी, कंकड़, पत्थर, पूजा,
:::अपनी पूजा करने से तो मैं बाज़ रहा।