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नई शताब्दी / प्रदीप मिश्र

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नया पृष्ठ: <poem>'''नई शताब्दी ''' एक बार फिर किसी आकाशीय पिंड के हृदय में सृजन की ऊ…
<poem>'''नई शताब्दी
'''

एक बार फिर
किसी आकाशीय पिंड के हृदय में
सृजन की ऊष्मा इतनी तीव्रता से उफने कि
फटकर बिखर जाय वह पूरे अंतरिक्ष में
जिस तरह से किसान बिखेरता खेतों में बीज
उगें छोटे-बड़े ग्रह-उपग्रह
निर्मित हो नया-नया ब्रह्मांड

इस बार
उपग्रहों के चक्कर काटें ग्रह
ग्रहों का सूर्य
हिमालय पिघलकर समुन्द्र बन जाय
समुन्द्र हराभरा पहाड़ और
दक्षिणी ध्रुव रेगिस्तान में बदल जाय

पेड़-पौधे मनुष्यों की तरह चलें फिरें
चिड़ियाँ समुन्द्र में तैरें
मछलियाँ ले उड़ें मछुए की जाल
आकाश में
मनुष्यों का स्मृतिलोप हो जाय
इतिहास डूब जाय प्रलय की बाढ़ में

फिर नए सिरे से पहचाने जाएं
जंगल-पेड़-पहाड़-जीव-जंतु
निर्मित हो नई-नई भाषा
नए-नए शब्द आएँ जीवन में
नई शताब्दी में विकसित हो नई-नई जीवन शैली।
</poem>
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