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नया पृष्ठ: <poem>'''डूबते हुए हरसूद पर पाँच कविताएं (मुझे नहीं मालूम कि ये प्रतिक्…
<poem>'''डूबते हुए हरसूद पर पाँच कविताएं
(मुझे नहीं मालूम कि ये प्रतिक्रियाएँ साहित्य की किसी विधा की शिल्प में हैं या नहीं यह पढ़नेवालों पर छोड़ता हूँ।)'''
(एक) - घर
जब भी कोई जाता
लम्बी यात्रा पर
घर उदास रहता
उसके लौटने तक
जब भी उठती घर से
बेटियों की डोली
वह घर की औरतों से
ज्यादा विफरकर रोता
जब भी जन्मते घर में बच्चे
गर्व से फैलकर
अपने अन्दर जगह बनाता
उनके लिए भी
उत्सवों और सुअवसरों पर
इतना प्रसन्न होता कि
उसके साथ टोले-मुहल्ले भी
प्रसन्न हो जाते
इसी घर पर
आज बरस रहे हैं हथौड़े
वह मुँह भींचे पड़ा हुआ है
न आह, न कराह
चुपचाप भरभराते हुए
ढह रहा है घर
घर विस्थापित हो रहा है।
(दो) - छूटा हुआ जूता
सुनसान सड़क पर छूटा हुआ है
एक पैर का जूता
उसे इन्तजार है
हमसफर पाँव का
जिसके साथ
टहलने जाना चाहता है
पान की दूकान तक
एक किनारे औंधा पड़ा हुक्का
सुगबुगा रहा है
कोई आकर उसे गुड़गुड़ाए
तो वह फिर जी जाएगा
भर देगा रग-रग में तरंग
ठण्डा पड़ रहा है चुल्हा
खेतों में खटकर लौटी भूख
को देखकर जल उठेगा
लपलपाते हुए
खूँटी पर टँगा हुआ बस्ता
अपने अन्दर की स्याही से
नीला पड़ रहा है
उसे लटकने के लिए
नाजुक कन्धा मिल जाए तो
उसे बना देगा कर्णधार
उजड़ती हुई खिड़कियों के झरोखों
और दरवाजों की ओट में पल्लवित प्रेम
विस्थापित हो रहा है
अभी भी मिल जाऐं आतुर निगाहें तो
वे फिर रच देंगे हीर-राँझां
नीम की छाँव में
धूप के चकत्तों का आकार बढ़ता जा रहा है
खेतों के गर्भ में
बहुत सारी उर्वरा खदबदा रही है
आखिरी तारिख का ऐलान हो चुका है
एक दिन इन सब पर
फिर जाएगा पानी
इस पानी से बनेगी बिजली
जो दौड़ेगी
नगर-नगर,गाँव-गाँव
चारो तरफ विकास ही विकास होगा
एक दिन विकसित समाज में
कोई दबाएगा बिजली का खटका तो
उसकी बत्ती से रौशनी की जगह
विस्थापितों के जूते बरसेंगे
जो पुलिस के डंडे की डर
से छुट गए थे सड़क पर
कोई टेबल लैम्प जलाएगा
पढ़ने के लिए
उसके सामने फैल जाएगी
बस्ते की स्याही
जो खूँटी पर टँगा छूट गया था
कोई कम्प्यूटर का खटका दबाएगा
तो उसके कम्प्युटर के स्क्रीन पर
उभरेगा मरणासन्न हुक्का
पूछेगा कहाँ गए वो लोग
जो मुझे गुड़गुड़ाते थे
कोई हीटर का खटका दबाएगा
चाय बनाने के लिए
तो हीटर पर रखी केतली में
उन चूल्हों के खूनभरे आँसू उबलेंगे
जिनकी आग पानी डूब गयी
खेतों के गर्भ में खदबदाने के लिए
कुछ भी नहीं बचेगा
सड़ रही होंगी जड़ें
फिर दबाते रहिए बिजली के खटके
गाड़ते जाएं विकास के झण्डे
वहाँ कुछ नहीं बचेगा
जीवन जैसा ।
(तीन) - डूबता पीपल, तिरती स्लेट
बढ़ रहा है नदी में पानी
चढ़ रहा है गाँव पर
कसमसा रहे है खेत
वर्षों पैदा किया अनाज
अब जम जाएगी उन पर काई
या उनके अंदर बची हुई जड़ें
सड़कर बदबू फैलाएंगी
हो जाएगा जीना मुहाल
मर जाऐंगे खेत
चिल्ला रहे हैं
अरे आओ रे आओ
बचाओ कोई
आधा डूब चुका है बूढ़ा पीपल
और पानी चढ़ रहा है लगातार
वह डूबते हुए आदमी की तरह
अपनी टहनियों को ऊपर उठाए
चिल्ला रहा है
अरे आओ रे आओ
बचाओ कोई
अभी मेरे जिम्में बहुत सारी मन्नतें हैं
जिनको पूरा करना है
अपनी छाया में खेलते-कूदते बच्चों को
जवान होते देखना है
बहुत सारे तीज-त्यौहारों में शामिल होना है
एक घर जो बचा रह गया था
सरकारी बुल्डोजरों और हथौड़ों से
न रो रहा है
न बचाव के लिए चिल्ला रहा है
खुद के आंसुओं से
गल रहीं हैं उसकी दीवारें
और चढ़ रहा है नदी का पानी
घर जल समाधि लगा रहा है
देखते-देखते डूब गया हरसूद
हाथियों नीचे पानी में
और पानी की सतह पर
एक स्लेट तैर रही है
जिसपर लिखा है कखग।
(चार) - डूब गया एक गाँव हरसूद
एक बार फैली थी महामारी
देखते-देखते
पूरा गाँव खाली हो गया था
यहाँ तक कि जानवर भी नहीं बच पाए थे
महामारी के प्रकोप से
एक बार आया था
बहुत भयानक भूकम्प
धरती ऐसी काँपी थी कि
नेस्तनाबूत हो गया था पूरा गाँव
एक बार गाँव के बीचो-बीच
फूट पड़ा थी ज्वालामुखी
जलकर राख हो गए थे
गाँव के बाग-बगीचे तक
एक बार आया था प्रलय
ऐसा महाप्रलय कि
उसमें समा गया था पूरा गाँव
इसबार न फैली महामारी
न भूकम्प से थरथरायी धरती
न ज्वालामुखी से उमड़ा आग का दरिया
न ही हुआ प्रलय का महाविनाशक तांडव
फिर भी डूब गया एक गाँव हरसूद
हरसूद डूब गया
अपनी सभ्यता-परम्परा और
जीवन की कलाओं के साथ।
(पाँच)- छूटी गीतों की डायरी, रंगोली के रंग
पकिस्तान से विस्थापित होकर
मैं आया था अपने देश में
अपने देश में भी विस्थापित
होता रहा बार-बार
हर बार तोड़ी एक गृहस्थी
हर बार जोड़ी एक गृहस्थी
नयी गृहस्थी हमेशा ही पुराने से
कमतर ही रही
अब फिर अस्सी वर्ष की उम्र में
उजड़ रहा हूँ हरसूद से
अस्सी वर्ष की उम्र में
उजड़ना बहुत आसान होता है
बसना नामुमकिन
मुझे सरकार ने दिया है
बहुत सारा मुवावजा
मैं आजकल रूपये
ओढ़-बिछा रहा हूँ
खूब चबा-चबाकर खा रहा हूँ
सौ-सौ के नोट
लेकिन कम्बख्त भूख है कि मिटती नहीं
नोटों के गद्दे पर वो नींद नहीं आती
जो कर्ज में गले तक डूबे रहने के बाद भी
अपनी झोपड़ी के जमीन पर आती थी
मैं हरसूद से विस्थापित हो गया
मेरा जीवन वहीं छूट गया
डूबकर मरने के लिए
मेरी सुहाग की चूड़ियाँ
लोक गीतों की डायरी
रंगोली के रंग
चौक पूरने का सामान
तुलसी का चौरा
सखी-सहेलियाँ
सबकुछ छूट गया हरसूद में
हरसूद डूब गया
अब मैं डूबने बच गयी
या मैं भी डूब गयी
हरसूद के साथ
कौन बताएगा मुझे
मास्टर जी ने कहा था
विकास मनुष्य को बेहतर जीवन देता है
विषय पर लेख लिखने के लिए
मैंने बहुत अच्छा लेख लिखा है
लेकिन मेरी पाठशाला और मास्टर जी
दोनो छूट गए हरसूद में
अब मैं इस लेख का क्या करूँ
विकास की कीमत इतनी ज्यादा होती है
तो क्या बुरा है अविकसित रहना।
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(मुझे नहीं मालूम कि ये प्रतिक्रियाएँ साहित्य की किसी विधा की शिल्प में हैं या नहीं यह पढ़नेवालों पर छोड़ता हूँ।)'''
(एक) - घर
जब भी कोई जाता
लम्बी यात्रा पर
घर उदास रहता
उसके लौटने तक
जब भी उठती घर से
बेटियों की डोली
वह घर की औरतों से
ज्यादा विफरकर रोता
जब भी जन्मते घर में बच्चे
गर्व से फैलकर
अपने अन्दर जगह बनाता
उनके लिए भी
उत्सवों और सुअवसरों पर
इतना प्रसन्न होता कि
उसके साथ टोले-मुहल्ले भी
प्रसन्न हो जाते
इसी घर पर
आज बरस रहे हैं हथौड़े
वह मुँह भींचे पड़ा हुआ है
न आह, न कराह
चुपचाप भरभराते हुए
ढह रहा है घर
घर विस्थापित हो रहा है।
(दो) - छूटा हुआ जूता
सुनसान सड़क पर छूटा हुआ है
एक पैर का जूता
उसे इन्तजार है
हमसफर पाँव का
जिसके साथ
टहलने जाना चाहता है
पान की दूकान तक
एक किनारे औंधा पड़ा हुक्का
सुगबुगा रहा है
कोई आकर उसे गुड़गुड़ाए
तो वह फिर जी जाएगा
भर देगा रग-रग में तरंग
ठण्डा पड़ रहा है चुल्हा
खेतों में खटकर लौटी भूख
को देखकर जल उठेगा
लपलपाते हुए
खूँटी पर टँगा हुआ बस्ता
अपने अन्दर की स्याही से
नीला पड़ रहा है
उसे लटकने के लिए
नाजुक कन्धा मिल जाए तो
उसे बना देगा कर्णधार
उजड़ती हुई खिड़कियों के झरोखों
और दरवाजों की ओट में पल्लवित प्रेम
विस्थापित हो रहा है
अभी भी मिल जाऐं आतुर निगाहें तो
वे फिर रच देंगे हीर-राँझां
नीम की छाँव में
धूप के चकत्तों का आकार बढ़ता जा रहा है
खेतों के गर्भ में
बहुत सारी उर्वरा खदबदा रही है
आखिरी तारिख का ऐलान हो चुका है
एक दिन इन सब पर
फिर जाएगा पानी
इस पानी से बनेगी बिजली
जो दौड़ेगी
नगर-नगर,गाँव-गाँव
चारो तरफ विकास ही विकास होगा
एक दिन विकसित समाज में
कोई दबाएगा बिजली का खटका तो
उसकी बत्ती से रौशनी की जगह
विस्थापितों के जूते बरसेंगे
जो पुलिस के डंडे की डर
से छुट गए थे सड़क पर
कोई टेबल लैम्प जलाएगा
पढ़ने के लिए
उसके सामने फैल जाएगी
बस्ते की स्याही
जो खूँटी पर टँगा छूट गया था
कोई कम्प्यूटर का खटका दबाएगा
तो उसके कम्प्युटर के स्क्रीन पर
उभरेगा मरणासन्न हुक्का
पूछेगा कहाँ गए वो लोग
जो मुझे गुड़गुड़ाते थे
कोई हीटर का खटका दबाएगा
चाय बनाने के लिए
तो हीटर पर रखी केतली में
उन चूल्हों के खूनभरे आँसू उबलेंगे
जिनकी आग पानी डूब गयी
खेतों के गर्भ में खदबदाने के लिए
कुछ भी नहीं बचेगा
सड़ रही होंगी जड़ें
फिर दबाते रहिए बिजली के खटके
गाड़ते जाएं विकास के झण्डे
वहाँ कुछ नहीं बचेगा
जीवन जैसा ।
(तीन) - डूबता पीपल, तिरती स्लेट
बढ़ रहा है नदी में पानी
चढ़ रहा है गाँव पर
कसमसा रहे है खेत
वर्षों पैदा किया अनाज
अब जम जाएगी उन पर काई
या उनके अंदर बची हुई जड़ें
सड़कर बदबू फैलाएंगी
हो जाएगा जीना मुहाल
मर जाऐंगे खेत
चिल्ला रहे हैं
अरे आओ रे आओ
बचाओ कोई
आधा डूब चुका है बूढ़ा पीपल
और पानी चढ़ रहा है लगातार
वह डूबते हुए आदमी की तरह
अपनी टहनियों को ऊपर उठाए
चिल्ला रहा है
अरे आओ रे आओ
बचाओ कोई
अभी मेरे जिम्में बहुत सारी मन्नतें हैं
जिनको पूरा करना है
अपनी छाया में खेलते-कूदते बच्चों को
जवान होते देखना है
बहुत सारे तीज-त्यौहारों में शामिल होना है
एक घर जो बचा रह गया था
सरकारी बुल्डोजरों और हथौड़ों से
न रो रहा है
न बचाव के लिए चिल्ला रहा है
खुद के आंसुओं से
गल रहीं हैं उसकी दीवारें
और चढ़ रहा है नदी का पानी
घर जल समाधि लगा रहा है
देखते-देखते डूब गया हरसूद
हाथियों नीचे पानी में
और पानी की सतह पर
एक स्लेट तैर रही है
जिसपर लिखा है कखग।
(चार) - डूब गया एक गाँव हरसूद
एक बार फैली थी महामारी
देखते-देखते
पूरा गाँव खाली हो गया था
यहाँ तक कि जानवर भी नहीं बच पाए थे
महामारी के प्रकोप से
एक बार आया था
बहुत भयानक भूकम्प
धरती ऐसी काँपी थी कि
नेस्तनाबूत हो गया था पूरा गाँव
एक बार गाँव के बीचो-बीच
फूट पड़ा थी ज्वालामुखी
जलकर राख हो गए थे
गाँव के बाग-बगीचे तक
एक बार आया था प्रलय
ऐसा महाप्रलय कि
उसमें समा गया था पूरा गाँव
इसबार न फैली महामारी
न भूकम्प से थरथरायी धरती
न ज्वालामुखी से उमड़ा आग का दरिया
न ही हुआ प्रलय का महाविनाशक तांडव
फिर भी डूब गया एक गाँव हरसूद
हरसूद डूब गया
अपनी सभ्यता-परम्परा और
जीवन की कलाओं के साथ।
(पाँच)- छूटी गीतों की डायरी, रंगोली के रंग
पकिस्तान से विस्थापित होकर
मैं आया था अपने देश में
अपने देश में भी विस्थापित
होता रहा बार-बार
हर बार तोड़ी एक गृहस्थी
हर बार जोड़ी एक गृहस्थी
नयी गृहस्थी हमेशा ही पुराने से
कमतर ही रही
अब फिर अस्सी वर्ष की उम्र में
उजड़ रहा हूँ हरसूद से
अस्सी वर्ष की उम्र में
उजड़ना बहुत आसान होता है
बसना नामुमकिन
मुझे सरकार ने दिया है
बहुत सारा मुवावजा
मैं आजकल रूपये
ओढ़-बिछा रहा हूँ
खूब चबा-चबाकर खा रहा हूँ
सौ-सौ के नोट
लेकिन कम्बख्त भूख है कि मिटती नहीं
नोटों के गद्दे पर वो नींद नहीं आती
जो कर्ज में गले तक डूबे रहने के बाद भी
अपनी झोपड़ी के जमीन पर आती थी
मैं हरसूद से विस्थापित हो गया
मेरा जीवन वहीं छूट गया
डूबकर मरने के लिए
मेरी सुहाग की चूड़ियाँ
लोक गीतों की डायरी
रंगोली के रंग
चौक पूरने का सामान
तुलसी का चौरा
सखी-सहेलियाँ
सबकुछ छूट गया हरसूद में
हरसूद डूब गया
अब मैं डूबने बच गयी
या मैं भी डूब गयी
हरसूद के साथ
कौन बताएगा मुझे
मास्टर जी ने कहा था
विकास मनुष्य को बेहतर जीवन देता है
विषय पर लेख लिखने के लिए
मैंने बहुत अच्छा लेख लिखा है
लेकिन मेरी पाठशाला और मास्टर जी
दोनो छूट गए हरसूद में
अब मैं इस लेख का क्या करूँ
विकास की कीमत इतनी ज्यादा होती है
तो क्या बुरा है अविकसित रहना।
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