{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=प्रदीप मिश्र|संग्रह= }} {{KKCatKavita}}<poem>'''कारीगर'''(कवि चंद्रकांत देवताले के लिए)'''
चेहरे पर बड़ी-बड़ी आँखें
इतनी बड़ी कि उनमें
घूमती हुई पृथ्वी साफ साफ़ दिखाई दे
पसलियों के नीचे
प्रेम से लबालब हृदय में
इतना स्नेह कि
घर पड़ोस के ईंट -पत्थर भी
उसके करीब बना रहना चाहें
अखबार अख़बार की खबरों ख़बरों से चिंतित
उसका मन
कोलम्बस की तरह भटक रहा है
उसकी खुरदुरी हथेलियों पर
नहीं बची है कोई रेखा
उंगलियों उँगलियों में लोहे की छड़ जैसीताकत ताक़त पैदा गयी गई हैजब वह हथेलियों और उंगलियों उँगलियों को
मुट्ठी की तरतीब में कर रहा होता है
उस समय नृशंस सत्ता के माथे पर
किसी छरहरे पेड़ की तरह
रखता है वह धरती पर पॉवपाँव
अपने तलुओं को
जड़ों की तरह प्रयोग करता हुआ
पेंसिल खोंसने के घट्टे पड़ चुके हैं
वह तरास तराश रहा हैकाट- जोड़ रहा है
काम कर रहा है
लिख रहा है कविताऐं
आधी शताब्दी से निरन्तर।निरन्तर ।
</poem>