1,534 bytes added,
12:05, 20 दिसम्बर 2010 <poem>जितने भी लोग मुझे कल सरे बाजार मिले
सब किसी और की अस्मत के खरीदार मिले
अहले गुलशन की भी नीयत पे यंकी क्या करते
फूल के परदे में जब हमको सदा खlर मिले
वे जिन्हें इल्म नहीं कुछ भी हवा के रुख का
आज हाथों में लिए कश्ती ओ पतवार मिले
जिस तरफ जाईये इक खौफजदा आलम है
हर तरफ सर पे लटकती कोई तलवार मिले
बात करते थे जो आकाश को छूने की कभी
वक्ते परवाज परिंदे वही लाचार मिले
हमने जो छत की मुंडेरो पे सजाये थे दीये
शाम होते ही जो देखा पसे दीवार मिले
गम से निस्बत ही कुछ ऐसी थी कि ठुकरा न सके
मिलने को राह में खुशियों के भी अम्बार मिले
कौन टकराता भला बढ़ के हकीकत से अनिल
सब ही इस दौर में ख्वाबों के परस्तार मिले</poem>