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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=कुमार अनिल|संग्रह=और कब तक चुप रहें / कुमार अनिल}}{{KKCatGhazal‎}}‎<poemPoem>बने हुए हैं इस नगरी में सब शीशे के घर लोगो
दरक गए तो कहाँ रहोगे मत फेंको पत्थर लोगो
अपना तो सारा का सारा तन्हा कटा सफ़र लोगो
होने को इस महानगर में छत भी हैं , दीवारें भी
कितना ढूँढा लेकिन हमको मिला नहीं इक घर लोगो
मेरा अपना जीने का ढंग, मेरी अपनी राह अलग
चलती है जिस तरफ़ भीड़ मै चलता नहीं उधर लोगो</poem>
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