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मेरे हाथ में एक कलम है<br />जिसे मैं अक्सर ताने रहता हूँ<br />हथगोले की तरह फेंक दूँ उसे बहस के बीच<br />और धुँआ छँटने पर लड़ाई में कूद पड़ूँ<br />- कोई है जो उस वक़्त मेरे घुटने से बहते रक्त की<br />तरफ़ इशारा कर न कहे कि<br />शान्ति रखो, सब यूँ ही चलता रहेगा?<br />और जब मैं घुटती हुई चीख को शब्दों में<br />ज़बरदस्ती ढकेलते हुए कहूँ, क्या आप मेरा साथ देंगे,<br />बहस में नहीं, लड़ने में<br />तो मेरी नज़र मेरी जेब पर न होकर<br />मेरे चेहरे पर हो?<br /><br />आसपास खुलती हुई खीसों में<br />इतनी संवेदना है<br />कि एक पत्ती की उद्धत तनहाई हिलती हुई<br />तोंद के हवाले हो जाती है<br />और बहस के लिए अन्याय के खिलाफ़ लड़ाइयाँ नहीं<br />बिना अक्षर की<br />एक पीली दीवार रह जाती है<br /><br />फिर भी उन्हें डर है कि आज जो<br />शब्द-उगलती क्यारियों की छटा है, सेंतमेंत है<br />कल ज़मीन का जलता तिनका बन जाएगी<br />और एक ख़ूनी लहर जो<br />पत्रिकाओं के सतरंगे मुखपृष्ठों पर<br />घूँसे तानती हर कुर्सी की बग़ल में<br />सटकर बैठ जाती है<br />काला झंडा उठाएगी<br /><br />जबकि चिरी हुई दीवार की ओट में खड़े<br />उनके आँसुओं के पीछे<br />धूल में पिटते नंगे चेहरों को धोता<br />कंटीला घड़ियाल है<br />कीचड़ में पद्म-श्री सूँघता हुआ<br />और प्रतीकों की जकड़ जहाँ ख़ून में मिली हुई<br />दूर तक उभड़ती चली गयी है उस दुर्घटना में<br />- कोई है जो मेरे बदहवास निहत्थेपन को सिर्फ़ मेरा <br />कुचला हुआ सौन्दर्यबोध न कहे <br />और जब मेरी चुप चीख से उतरकर<br />हाथ-पाँव की हरकत में बदल जाए<br />तो उसे पिछड़ेपन की छटपटाहट नहीं, चीज़ों को<br />तोड़ने का इरादा समझे?
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मेरे हाथ में एक कलम है<br />जिसे मैं अक्सर ताने रहता हूँ<br />हथगोले की तरह फेंक दूँ उसे बहस के बीच<br />और धुँआ छँटने पर लड़ाई में कूद पड़ूँ<br />- कोई है जो उस वक़्त मेरे घुटने से बहते रक्त की<br />तरफ़ इशारा कर न कहे कि<br />शान्ति रखो, सब यूँ ही चलता रहेगा?<br />और जब मैं घुटती हुई चीख को शब्दों में<br />ज़बरदस्ती ढकेलते हुए कहूँ, क्या आप मेरा साथ देंगे,<br />बहस में नहीं, लड़ने में<br />तो मेरी नज़र मेरी जेब पर न होकर<br />मेरे चेहरे पर हो?<br /><br />आसपास खुलती हुई खीसों में<br />इतनी संवेदना है<br />कि एक पत्ती की उद्धत तनहाई हिलती हुई<br />तोंद के हवाले हो जाती है<br />और बहस के लिए अन्याय के खिलाफ़ लड़ाइयाँ नहीं<br />बिना अक्षर की<br />एक पीली दीवार रह जाती है<br /><br />फिर भी उन्हें डर है कि आज जो<br />शब्द-उगलती क्यारियों की छटा है, सेंतमेंत है<br />कल ज़मीन का जलता तिनका बन जाएगी<br />और एक ख़ूनी लहर जो<br />पत्रिकाओं के सतरंगे मुखपृष्ठों पर<br />घूँसे तानती हर कुर्सी की बग़ल में<br />सटकर बैठ जाती है<br />काला झंडा उठाएगी<br /><br />जबकि चिरी हुई दीवार की ओट में खड़े<br />उनके आँसुओं के पीछे<br />धूल में पिटते नंगे चेहरों को धोता<br />कंटीला घड़ियाल है<br />कीचड़ में पद्म-श्री सूँघता हुआ<br />और प्रतीकों की जकड़ जहाँ ख़ून में मिली हुई<br />दूर तक उभड़ती चली गयी है उस दुर्घटना में<br />- कोई है जो मेरे बदहवास निहत्थेपन को सिर्फ़ मेरा <br />कुचला हुआ सौन्दर्यबोध न कहे <br />और जब मेरी चुप चीख से उतरकर<br />हाथ-पाँव की हरकत में बदल जाए<br />तो उसे पिछड़ेपन की छटपटाहट नहीं, चीज़ों को<br />तोड़ने का इरादा समझे?
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