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15:08, 27 दिसम्बर 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=आलम खुर्शीद
|संग्रह=
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<poem>
हथेली की लकीरों में इशारा और है कोई
मगर मेरे तआकुब में सितारा और है कोई
किसी साहिल पे जाऊं एक ही आवाज़ आती है
तुझे रुकना जहाँ है वो किनारा और है कोई
न गुंबद इस ईमारत का, न फाटक उस हवेली का
कबूतर ढूँढता है जो मिनारा और है कोई
तमाज़त है वही बाक़ी अगरचे अब्र भी बरसे
हमारी राख में शायद शरारा और है कोई
अभी तक तो वही शिद्दत हवाओं के जूनून में है
अभी तक झील में शायद शिकारा और है कोई
मैं बाहर के मनाज़िर से अलग हूँ इसलिए' आलम '
मेरे अंदर कि दुनिया में नजारा और है कोई
</poem>
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