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13:56, 28 दिसम्बर 2010 <poem>मल्लाह बन के बैठे थे कल तक जो नाव में
लो आज वो भी व्यस्त हैं अपने बचाव में
कैसी तुम्हारे शहर क़ी आबो हवा हुई
हर शख्स जी रहा है, अजब से तनाव में
हथियार बन के उट्ठे तो कुछ बात भी बने
जो हाथ उठ रहा है अभी तक बचाव में
इस राख को कुरेद के देखो तो एक बार
थोड़ी सी आग बाकी हो शायद अलाव में
सैलाब नफरतों का गुजर तो गया मगर
रिश्तो के पुल भी बह गए उसके बहाव में
ख्वाहिश, तलब, शिकवे, गिले, नाकाम हसरतें
इन सबको छोड़ आये हैं पिछले पड़ाव में
दुनियावी सुख क़ी चाह में जीवन गुजर गया
सोना हमारा बिक गया मिट्टी के भाव में
मंदिर से कुछ लगाव न मस्जिद से कोई काम
ये लोग आ फँसे हैं सियासत के दाव में
देखो लहूलुहान है धरती का सारा ज़िस्म
मरहम लगाओ तुम ही 'अनिल' उसके घाव में</poem>