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<poem>कभी तो चेहरे से चेहरा हटा के बात करो
कभी तो खुद से भी आँखें मिला के बात करो

शदीद धूप में आये हैं चल के मीलो तक
अब आप छाँव में हमको बिठा के बात करो

पता बताएगा तुमको तुम्हारी मंजिल का
ये संगे राह है, इसको उठा के बात करो

हवा को देख के कांपोगे चरागों कब तक
अब आंधियों से भी सर को उठा के बात करो

मकान काँच के घेरे खड़े हैं राहों को
हरेक शब्द को पत्थर बना के बात करो

छुपाये फिरता हूँ दिल में गुबार सा कब से
मै रो लूँ, पास जो मुझको बिठा के बात करो

तुम्हारी फूल सी बातों को कौन समझेगा
क़ी अब जुबान में काँटे उगा के बात करो

सुनेगा कौन 'अनिल' तुमको हुजूम में इतने
कभी तो भीड़ से बाहर भी आके बात करो</poem>
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