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<poem>सिर्फ मेरा ही नहीं था ये शहर तेरा भी था
तूने लूटा खुद जिसे ऐ दोस्त घर तेरा भी था

काट डाला तूने जिसको किस कदर शादाब था
छाँव देता था मुझे तो वो शज़र तेरा भी था

एक थी मंजिल हमारी एक ही था रास्ता
मैं चला था जिस सफ़र पे वो सफ़र तेरा भी था

कल क़ी आँधी ने बुझा डाले दिये जो, उनमे ही
था मेरा लख्ते जिगर, नूरे नजर तेरा भी था

राहे रंजिश का इशारा एक ही उंगली का था
जिसने भटकाया मुझे वो राहबर तेरा भी था

एक दहशत क़ी गुफा से मै न बाहर आ सका
डर अगर अपना इधर था, गम उधर तेरा भी था</poem>
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