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14:35, 28 दिसम्बर 2010 <poem>कतरा रहें हैं आज कल पंछी उडान से
पत्थर बरस रहे हैं बहुत आसमान से
कब तक उठाऊँ बोझ भला इस जहान का
अक्सर ये पूछती है जमीं आसमान से
ग़ुरबत ने गम भुला दिया बेटे के क़त्ल का
लाचार बाप फिर गया अपने बयान से
ऊपर पहुँच के लोग भी छोटे बहुत लगे
कुछ अपने भी देखा था उनको ढलान से
मैं बेवफ़ा हूँ मान ये लूँगा हज़ार बार
लेकिन वो एक बार कहे तो जुबान से
फिर आज हँस न पायेगा शायद तू शाम तक
अख़बार पढ़ रहा है क्यों इस दर्जा ध्यान से</poem>