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15:56, 29 दिसम्बर 2010 <poem>सबकी आँखों में झाँकता हूँ मैं
जाने क्या चीज ढूँढता हूँ मैं
अपनी सूरत से हो गयी नफरत
आईने यूं भी तोड़ता हूँ मैं
आदमी किस कदर हुआ तन्हा
तन्हा बैठा ये सोचता हूँ मैं
एक जंगल है वो भी जलता हुआ
अब जहाँ तक भी देखता हूँ मैं
कोई कहता है आदमी जो मुझे
भीड़ में खुद को ढूँढता हूँ मैं
अस्ल में अब ग़ज़ल नहीं कहता
खून दिल का निचोड़ता हूँ मैं</poem>