भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
नया पृष्ठ: <poem>पिंजरे से पंछी उड़ने में वक्त नहीं लगता चलती साँसों के रुकने मे…
<poem>पिंजरे से पंछी उड़ने में वक्त नहीं लगता
चलती साँसों के रुकने में वक्त नहीं लगता
अम्बर छूने कि चाहत में इतना भी मत उड़
ऊपर से नीचे गिरने में वक्त नहीं लगता
वक्त से पहले इसी फिक्र ने बूढा कर डाला
नन्ही बिटिया के बढ़ने में वक्त नहीं लगता
अगर दुआये भी शामिल हों संग दवाओं के
ज़ख्म कोई भी हो भरने में वक्त नहीं लगता
सूखे पेड़ बहुत काम आये, आँधी में वरना
हरे दरख्तों के गिरने में वक्त नहीं लगता
ये कंचन की काया तेरी, मिटटी है पगले
मिट्टी, मिट्टी में मिलने में वक्त नहीं लगता
पलक झपकते क्या हो जाये किसको पता 'अनिल,
होनी, अनहोनी होने में वक्त नहीं लगता</poem>
चलती साँसों के रुकने में वक्त नहीं लगता
अम्बर छूने कि चाहत में इतना भी मत उड़
ऊपर से नीचे गिरने में वक्त नहीं लगता
वक्त से पहले इसी फिक्र ने बूढा कर डाला
नन्ही बिटिया के बढ़ने में वक्त नहीं लगता
अगर दुआये भी शामिल हों संग दवाओं के
ज़ख्म कोई भी हो भरने में वक्त नहीं लगता
सूखे पेड़ बहुत काम आये, आँधी में वरना
हरे दरख्तों के गिरने में वक्त नहीं लगता
ये कंचन की काया तेरी, मिटटी है पगले
मिट्टी, मिट्टी में मिलने में वक्त नहीं लगता
पलक झपकते क्या हो जाये किसको पता 'अनिल,
होनी, अनहोनी होने में वक्त नहीं लगता</poem>