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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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आँचल जब भी लहराते हो
जादू दिल पर कर जाते हो

जिस चीज़ में है जीवन अमृत
उस चीज़ को तुम ठुकराते हो

जो तोड़ दे दिलवालों के दिल
क्यों ऐसी बात सुनाते हो

तुम दिल में लगाकर आग मेरे
क्यों और इसे भड़काते हो

जब भीड़ में अनजानेपन से
छू जाए कोई डर जाते हो

जो कहना है वो साफ़ कहो
क्यों कहते हुए रुक जाते हो

दिल टूटने वाला रोता है
दिल तोड़ के तुम मुस्काते हो

बच्चे हैं 'रक़ीब' तो खेलेंगे
बेकार उन्हें समझाते हो
</poem>
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