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रोटियाँ / नज़ीर अकबराबादी

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इस के मुशाहिर्द<ref>निरीक्षण</ref> में है ख़िलता ज़हूर<ref>प्रकट</ref> क्या ?
वो बोला सुन के तेरा गया है शऊर क्या ?
कश्फ़-उल-क़ुलूब <ref>मन की गुप्त जानकारी देना</ref> और ये कश्फ़-उल-कुबूर <ref>क़ब्र की गुप्त जानकारी देना</ref> क्या ? जितने हैं कश्फ़ <ref>गुप्तज्ञान</ref> सब ये दिखाती हैं रोटियाँ ।।7।।
रोटी जब आई पेट में सौ कन्द <ref>शक्कर, मिठाई</ref> घुल गए ।गुलज़ार <ref>बाग़</ref> फूले आँखों में और ऐश तुल गए ।।
दो तर निवाले पेट में जब आ के ढुल गए ।
चौदह तबक़ <ref>चौदह लोक, इस्लामी दर्शन के अनुसार लोक चौदह हैं।</ref> के जितने थे सब भेद खुल गए ।।
यह कश्फ़ यह कमाल दिखाती हैं रोटियाँ ।।8।।
रोटी से नाचे प्यादा क़वायद दिखा-दिखा ।
असवार नाचे घोड़े को कावा लगा-लगा ।।
घुँघरू को बाँधे पैक <ref>डाकिया या पत्रवाहक, पुराने ज़माने में जिसके पैर में या लाठी में घूँघरू बँधे होते थे</ref> भी फिरता है जा बजा ।
और इस के सिवा ग़ौर से देखो तो जा बजा ।।
सौ-सौ तरह के नाच दिखाती हैं रोटियाँ ।।12।।
कुछ भाँड भगतिए ये नहीं फिरते नाचते ।।
ये रण्डियाँ जो नाचें हैं घूँघट को मुँह पे ले ।
घूँघट न जानो दोस्तो ! तुम जिनहार <ref>हरगिज, कदापि</ref> इसे ।।
उस पर्दे में ये अपनी कमाती हैं रोटियाँ ।।13।।
यह आन, यह झमक तो दिखाती हैं रोटियाँ ।।14।।
अशराफ़ों <ref>कुलीन, खानदानी</ref> ने जो अपनी ये जातें छुपाई हैं ।
सच पूछिए, तो अपनी ये शानें बढ़ाई हैं ।।
कहिए उन्हीं की रोटियाँ कि किसने खाई हैं ।
अशराफ़ <ref>शरीफ़ का बहुवचन</ref> सब में कहिए, तो अब नानबाई हैं ।।
जिनकी दुकान से हर कहीं जाती हैं रोटियाँ ।।15।।
किस वास्ते की सब ये पकाती हैं रोटियाँ ।।16।।
दुनिया में अब बदी न कहीं और निकोई <ref>अच्छाई</ref> है ।ना दुश्मनी ना दोस्ती ना तुन्दखोई <ref>बदमिजाज़ी</ref> है ।।
कोई किसी का, और किसी का न कोई है ।
सब कोई है उसी का कि जिस हाथ डोई है ।।
नौकर नफ़र <ref>मज़दूर</ref> ग़ुलाम बनाती हैं रोटियाँ ।।17।।
रोटी का अब अज़ल से हमारा तो है ख़मीर ।
रूखी भी रोटी हक़ में हमारे है शहद-ओ-शीर ।।
या पतली होवे मोटी ख़मीरी हो या फ़तीर <ref>गुंधे हुए आटे की लोई</ref>
गेहूँ, ज्वार, बाजरे की जैसी भी हो ‘नज़ीर‘ ।।
हमको तो सब तरह की ख़ुश आती हैं रोटियाँ ।।18।।
</poem>
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