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वे अपने जीवन काल में अपनी रचनाओं का सुव्यवस्थित रूप से प्रकाशन नहीं कर पाये। डा0 उमाशंकर सतीश ने ‘चन्द्रकुवर
बर्त्वाल की कवितायें भाग-एक’ में यह रहस्योद्घाटन किया हैं कि उन्होंने अपना लिखा संकोचवश पत्रिकाओं में भी नहीं भेजा। बस स्वातः सुखाय कवितायें लिखी और पास रख लीं बहुत हुआ तो अपने मित्रों को भेज दीं। उनके मित्र पं0 शम्भू प्रसाद बहुगुणा जी को उनकी रचनाये सुव्यवस्थित करने का श्रेय जाता है जिन्होंने 350 कविताओं का संग्रह संपादित किय । डा0 उमाशंकर सतीश ने भी उनकी 269 कविताओं व गीतों का प्रकाशन किया था। उनकी दूरदृष्टि इतनी तीखी थी कि उस समय ही वर्तमान शिक्षा प्रणाली और अंतराष्ट्रीय बाजारवाद के दुष्प्रभावों को भांप लिया था। ‘मैकाले के खिलौने’ नामक कविता का अंश देखियेः- मेड इन जापान , खिलौनों से सस्ते हैं लार्ड मैकाले के ये नये खिलौने इन को ले लो पैसे के सौ-सौ दो-दो सौ राष्ट्रीयता का भाव उनकी रचनाओं में जहां भी उभरता था पूरे पैनेपन के साथ उभर कर आता था तभी तो आज के परिदृष्य उन्होने सत्तर साल पहले ही खींचकर रख दिये थे। उनकी छुरी नामक कविता का अंश देखिये:- मजदूरों की सरकार ओह इटली तू जाय जहन्नम को, लीग सी नाज्.ारी जो छोडी नामर्द कहें क्या हम तुम को। श्री बर्त्वाल की अब तक अन्वेषित लगभग आठ सौ से अधिक गीत और कवितायें यह सिद्ध करती हैं कि चन्द्रकुवर बर्त्वाल हिन्दी के मंजे हुये कवि थे ।
लार्ड मैकाले के ये नये खिलौने  इन को ले लो पैसे के सौ-सौ दो-दो सौ  राष्ट्रीयता का भाव उनकी रचनाओं में जहां भी उभरता था पूरे पैनेपन के साथ उभर कर आता था तभी तो आज के परिदृष्य उन्होने सत्तर साल पहले ही खींचकर रख दिये थे।  उनकी छुरी नामक कविता का अंश देखिये:-  मजदूरों की सरकार ओह इटली तू जाय जहन्नम को,  लीग सी नाज्.ारी जो छोडी नामर्द कहें क्या हम तुम को।  श्री बर्त्वाल की अब तक अन्वेषित लगभग आठ सौ से अधिक गीत और कवितायें यह सिद्ध करती हैं कि चन्द्रकुवर बर्त्वाल हिन्दी के मंजे हुये कवि थे ।  उत्तराखण्ड के सुपरिचित इतिहासकार कैप्टेन शूरवीर सिंह पँवार का मत है कि महाकवि सुमित्रानन्दन पन्त और महाप्राण निराला से भी चन्द्र कुवर बर्त्वाल की घनिष्ठता थी। ’उत्तराखण्ड भारती’ त्रैमासिक जनवरी से मार्च 1973 के पृष्ठ 67 पर यह अंकित है कि निराला जी के साथ 1939 से 1942 तक उन्होंने अपना संघर्षमय जीवन उनके पास रहकर बिताया था। उन्होंने 25 से अधिक गद्य रचनायें भी लिखीं हैं जिससे कहानी ,एकांकी, निबन्ध एवं आलोचनायें भी हैं परन्तु उनके लिखे पद्य के अपार संग्रह से यह सिद्ध होता है कि वे मूलतः कवि थे। आम हिन्दुस्तानी की तरह उन्होंने भी आजादी का सपना देखा था लेकिन उनकी दूरदृष्टि आजादी के बाद के भारत को भी देख सकती थी शायद इसीलिये उन्होंने लिखा थाः-  हृदयों में जागेगा प्रेम और  नयनों में चमक उठेगा सत्य,  मिटेंगे झूठे सपने।  लखनऊ से वापिस लौटकर राजयक्ष्मा से अपनी रूग्णता के पाँच छः वर्ष पंवालिया में बिताने के दौरान श्री बर्त्वाल ने मुख्य रूप से अपनी शारीरिक पीडा और विरह वेदना के स्वर को मुखर कियाः-
मकडी काली मौत है, रोग उसी के जाल,
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