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{{KKRachna
|रचनाकार= श्रद्धा जैन
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किसी उजड़े हुए घर को बसाना
कहाँ मुमकिन है फिर से दिल लगाना

यकीनन आग बुझ जाती है इक दिन
मुसलसल गर पड़े ख्वाहिश दबाना

वो उस पल आसमां को छू रहा था
ये क्या था, उसका चुपके से बुलाना

ये सच है राह में कांटे बिछे थे
हमें आया नहीं दामन बचाना

हवा में इन दिनों जो उड़ रहे हैं
ज़मीं पर लौट आएँ फिर बताना

गिरे पत्ते गवाही दे रहे हैं
कभी मौसम यहाँ भी था सुहाना

परिंदा क्यूँ उड़े अब आसमाँ में
उसे रास आ गया है क़ैदखाना
</poem>
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