भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
असीम, छा रहा ऊपर :
नीचे यह महामौन की सरिता
:::: दिग्विहीन बहती है ।
यह बीच-अधर, मन रहा टटोल
प्रतीकों की परिभाषा
आत्मा में जो अपने ही से
:::: खुलती रहती है ।
रूपों में एक अरूप सदा खिलता है,
गोचर में एक अगोचर, अप्रमेय,
अनुभव मॆम एक अतीन्द्रिय,
पुरुषों के हर वैभव में ओझल
:::: अपौरुषेय मिलता है ।
मैं एक, शिविर का [प्रहरी, भोर जगा
अपने को मौन नदी के खड़ा किनारे पाता हूँ :
मैं, मौन-मुखर, सब छंदों में
उस एक निर्वच, छ्म्द-मुक्त को
:::: गाता हूँ ।
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,277
edits