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|रचनाकार = लीलाधर जगूड़ी
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<poem>
हर चीज़ यहाँ किसी न किसी के अन्दर है
हर भीतर जैसे बाहर के अन्दर है
फैल कर भी सारा का सारा बाहर
ब्रह्मांड के अन्दर है
बाहर सुन्दर है क्योंकि वह किसी के अन्दर है
हर चीज़ यहां किसी न किसी के मैं सारे अन्दर है<br>हर भीतर जैसे -बाहर के अन्दर है<br>फैल कर भी सारा का सारा बाहर<br>एक छोटा सा मॉडल हूँदिखते-अदिखते प्रतिबिम्बों से बनाब्रह्मांड के अन्दर अबिम्बित जिस मेंकिसी नए बिम्ब की संभावना-सा ज़्यादा सुन्दर है<br>भीतर से ज़्यादा बाहर सुन्दर है क्योंकि वह किसी ब्रह्मांड के अन्दर है<br>
भविष्य के भीतर हूँ मैं जिसका प्रसार बाहर है
बाहर देखने की मेरी इच्छा की यह बड़ी इच्छा है
कि जो भी बाहर है वह किसी के अन्दर है
तभी वह संभला हुआ तभी वह सुन्दर है
मैं सारे अन्दर - बाहर का एक छोटा सा मॉडल हूं<br>दिखते - अदिखते प्रतिबिम्बों से बना<br>अबिम्बित जिस में<br>किसी नए बिम्ब की संभावना सा ज़्यादा सुन्दर है<br>भीतर से ज़्यादा बाहर सुन्दर है <br>क्योंकि वह ब्रह्मांड के अन्दर है<br><br> भविष्य के भीतर हूं मैं जिसका प्रसार बाहर है<br>बाहर देखने की मेरी इच्छा की यह बड़ी इच्छा है<br>कि जो भी बाहर है वह किसी के अन्दर है<br>तभी वह संभला हुआ तभी वह सुन्दर है<br><br> तुम अपने बाहर को अन्दर जानकर <br>
अपने अन्दर से बाहर आ जाओ
</poem>
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