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|रचनाकार = लीलाधर जगूड़ी
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खिड़की से तालाब दिख रहा है धुँधाया आसमान
 
लगता है आज सूरज दिखेगा नहीं
 
पहले देखे कई दिनों की वजह से जानता हूँ
 
कि जो जैसा दिखता है वैसा निकलता नहीं
 
और जो जैसा दिखाया जाता है आख़िर वैसा होता नहीं
 
जो जैसा न हो उसे वैसा दिखाओ तो कहते हैं
 
आनंददायक ही नहीं मज़ेदार भी है
 
जितने को तितना दिखाओ तो कहेंगे मज़ा नहीं आया
 
ऐसे में असली होना भी कितना नीरस हो जाना होता है
 
व्यक्ति हो या आसमान रोज़ाना बदलता है बहुत कुछ
 
जो बदल जाता है वह कैसे रह पाएगा एक जैसा
 
देखना फिर सोचना फिर पाने न पाने की जगह और कुछ पा लेना
 
बदलता रहता है मनुष्य को
 
असली होने के लिए भी बदलते रहना पड़ता है
 
परिवर्तन भी पलायन जैसा दिखने लगता है
 
कितना लाचार और छोटा होता जा रहा है वह
 ज्ञान से सींच—सूँचकर सींच-सूँचकर मरने से बचा रहा है ईर्ष्या को किताबों से बाँच—बूँचकरबाँच-बूँचकर
नकल में स्याही पोतता जा रहा है ज़िंदगी पर
 
कुछेक शब्दों को ही वाक्यों में फेरता जा रहा है
 
तालाब जैसे धुँधाये आसमान में
 
न खेने लायक पानी न दम साधने लायक किनारा है
 
पहले देखे ऐसे कई नज़ारों की वजह से जानता हूँ
 कि जो जैसा दिखता है आख़िर वैसा निकलता नहीं.</poem>
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