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{{KKRachna
|रचनाकार = लीलाधर जगूड़ी
}}{{KKCatKavita}}<poem>किशोर उम्र में भी ऐसे ही पार की यह नदी पैरों से
युवा होने पर भी ऐसे ही पार की यह नदी पैरों से
अधेड़ होने पर भी ऐसे ही पार की यह नदी पैरों से
बूढ़ा हुआ तो ऐसे ही पार कर रहा हूँ यह नदी पैरों से
मरने के बाद जो लोग मुझे शमशान ले जाएँगे
वे भी ऐसे ही पार करेंगे इसे पैरों से
कंधों पर रखे मरे हुए लोग भी पुलों की तरह पार होंगे
दूसरों के पैरों से
इसका जलस्तर कुछ घटता —बढ़ता ज़रूर रहा है
पर यह नदी न कभी किशोर थी न युवा न अधेड़
मैं अपने बुढ़ापे में भी इसके बूढ़े होने का सपना नहीं देखना चाहता
मैं नदी के बुढ़ापे की कोई कल्पना नहीं करना चाहता
यह उम्र और समय से प्रभावित न हो
ऐसे ही मंद —मंथर -मंथर निरंतर बहती रहे
छोटे बड़े पत्थरों से तकराती आवाज़ मुझसे ऐसे ही कहती रहे
किसी ने भी जूते पहन कर इसे पार नही किया
यह पैरों को ही जानती है पुल की तरह
यह पिंडलियों को ही जानती है खंभों की तरह
यह उँगलियों को ही जानती है चप्पुओं की तरह
यह हथेलियों को ही जानती है नाव की तरह
यह आर—पार आर-पार होने को ही जानती है कुशल-क्षेम
मनुष्यों में पशुओं में और खेतों में यह प्यास को ही पहचानती है
हमारी रसोई सदा इसके पानी से ही बनी है
यह बरसात में मचली तो ज़रूर पर गँदली नहीं हुई
हम कहते रहे इसको जोंकाणी का गदेरा या जोंकाणी की गाड
दूसरे पहाड़ों से निकलने वाली नदियों के मुकाबले
यह दिन बाद पहुँचती है बड़ी नदी तक
तब तक हम दिल्ली से भी वापस आ जाते हैं
और इसका पानी पी कर अपनी सच्ची प्यास बुझाते हैं
बाँज के जंगल से जुड़ी हुई यह मेरे गाँव की छोटी–सी नदी है
बाँज,जिनकी टहनियों पर पल्लू खोंसे हवा चल रही है
ज़मीन आसमान एक किए हुए
इसे मैं और क्या नाम दूँ ?
यह नदी सरल है
और शायद सरलता ही इसको एक दिन ख़तरे में डाल देगी
क्योंकि आदमियों के समाज में
बिना समझे कुछ भी नष्ट कर देने की बात करना सबसे सरल है.।</poem>