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तूर / मख़दूम मोहिउद्दीन

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वो क्या आता रंगीली रागनी रंगी रबाब आता ।
मुझे रंगीनियों में रंगने वो रंगी सहाब आता
लबों की मय पिलाने झूमता मस्ते शबाब आता ।यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी । हवा के बोझ से जब हर क़दम पर लग़ज़िशें होतीफ़ज़ा में मुंतशर रंगीं बदन की लरज़िशें होती ।रबाबे दिल के तारों में मुसलसिल जुम्बिशें होतीख़िफ़ाए राज़ की पुरलुत्फ़ बाहम कोशिशें होती ।यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी । बहे जाते थे बैठे इश्क़ के ज़र्री सफीने मेंतमन्नाओं का तूफ़ाँ करवटें लेता था सीने में ।जो छू लेता था मैं उसको वो नहा जाता पसीने मेंमय-ए-दो आतिशा के से मज़े आते थे जीने में ।यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी । बला-ए-फ़िक्रे फर्दा हमसे कोसों दूर होती थीसुरूर-ए-सरमदी से ज़िंदगी मामूर होती ती ।हमारी ख़िल्वते मासूम रश्के तूर होती थीमलिक झूला झुलाते थे ग़ज़ल खाँ हूर होती थी ।यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी । न अब वो खेत बाक़ी हैं न वो आबे रवाँ बाक़ीमगर उस ऐश-ए-रफ़्ता का है इक धुँधला निशाँ बाक़ी ।
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