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तूर / मख़दूम मोहिउद्दीन

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'''तूर'''<ref>एक पहाड़ का नाम जिस पर मूसा पैगम्बर ख़ुदा की ज्योति देखने गए थे</ref>
यहीं की थी मुहब्बत के सबक की इब्तेदा<ref>शुरूआत</ref> मैंने यहीं की जुर्रते इज़हार<ref>प्रकट करने का साहस</ref>-ए हर्फ-ए मुद्दआ<ref>मनोरथ का अक्षर</ref> मैंने । यहीं देखे थे इश्वे नाज़ो-अंदाज़े हया<ref>प्रेमिका के हाव-भाव और लजाने का अंदाज़</ref> मैंने यहीं पहले सुनी थी दिल धड़कने की सदा मैंने ।
यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी ।
दिलों में इज़्दहामे आरज़ू<ref>कामनाओं का समूह</ref> लब बंद रहते थे नज़र से गुफ़्तगू होती थी दम उलफ़त<ref>मौहब्बत, प्रेम</ref> का भरते थे । न माथे पर शिकन होती, न जब तेवर बदलते थे ख़ुदा भी मुस्कुरा देता था जब हम प्यार करते थे ।
यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी ।
वो क्या आता के गोया दौर में जामे शराब आता वो क्या आता रंगीली रागनी रंगी रबाब<ref>सरोद जैसा संगीत्वादन का एक साज़</ref> आता । मुझे रंगीनियों में रंगने वो रंगी सहाब<ref>प्रेमी</ref> आता लबों की मय पिलाने झूमता मस्ते शबाब आता ।
यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी ।
हवा के बोझ से जब हर क़दम पर लग़ज़िशें<ref>फिसलन, त्रुटियाँ</ref> होती फ़ज़ा में मुंतशर<ref>फैलना</ref> रंगीं बदन की लरज़िशें<ref>कंपन</ref> होती । रबाबे दिल के तारों में मुसलसिल जुम्बिशें<ref>हरकत</ref> होती ख़िफ़ाए राज़<ref>रहस्य को छिपाना</ref> की पुरलुत्फ़ बाहम कोशिशें<ref>आपस में आनन्द भरी कोशिशें</ref> होती ।
यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी ।
बहे जाते थे बैठे इश्क़ के ज़र्री सफीने<ref>सोने की नाव</ref> में तमन्नाओं का तूफ़ाँ करवटें लेता था सीने में । जो छू लेता था मैं उसको वो नहा जाता पसीने में मय-ए-दो आतिशा<ref>दो प्रकार की अग्नि रूपी मदिराएँ</ref> के से मज़े आते थे जीने में ।
यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी ।
बला-ए-फ़िक्रे फर्दा<ref>आने वाले कल की चिंता</ref> हमसे कोसों दूर होती थी सुरूर-ए-सरमदी<ref>कभी समाप्त न होने वाला नशा</ref> से ज़िंदगी मामूर<ref>परिपूर्ण</ref> होती ती । हमारी ख़िल्वते मासूम<ref>निष्पाप एकांत</ref> रश्के तूर<ref>पर्वत को ले जाने वाला</ref> होती थी मलिक<ref>देवता, फ़रिश्ते</ref> झूला झुलाते थे ग़ज़ल खाँ हूर होती थी ।
यहीं खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी ।
न अब वो खेत बाक़ी हैं न वो आबे रवाँ<ref>नदी</ref> बाक़ी मगर उस ऐश-ए-रफ़्ता<ref>बीती हुई विलासिता</ref> का है इक धुँधला निशाँ बाक़ी ।
</poem>
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