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|रचनाकार=फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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{{KKCatKavita‎}}मेरे क़ातिल मेरे दिलदार मेरे पास रहो<br>जिस घडी रात चले<br>आसमानों का लहू पी कर सियाह रात चले<br>मरहम-ए-मुश्क लिए, नश्तर-ए-अल्मास चले<br>बैन करती हुई हंसती हुई गाती निकले<br>दर्द का कासनी पाज़ेब बजाती निकले<br>जिस घड़ी सीनों में डूबते हुए दिल<br>आस्तीनों में निहाँ हाथों की राह तकने निकले<br>आस लिए,<br>और बच्चों के बिलखने की तरह कुल्कुल-ए-मे<br>बहर-ए-ना-आसूदगी मचले तो मनाए न मने<br>जब कोई बात बनाए न बने<br>जब न कोई बात चले<br>जिस घड़ी रात चले<br>जिस घड़ी मातमी सुनसान सियाह रात चले<br>पास रहो<brpoem>
मेरे क़ातिल मेरे दिलदार मेरे पास रहो
जिस घड़ी रात चले
आसमानों का लहू पी कर सियाह रात चले
मरहम-ए-मुश्क लिए, नश्तर-ए-अल्मास चले
बैन करती हुई हंसती हुई गाती निकले
दर्द का कासनी पाज़ेब बजाती निकले
जिस घड़ी सीनों में डूबते हुए दिल
आस्तीनों में निहाँ हाथों की राह तकने निकले
आस लिए,
और बच्चों के बिलखने की तरह कुल्कुल-ए-में
बहर-ए-ना-आसूदगी मचले तो मनाए न मने
जब कोई बात बनाए न बने
जब न कोई बात चले
जिस घड़ी रात चले
जिस घड़ी मातमी सुनसान सियाह रात चले
पास रहो
मेरे क़ातिल मेरे दिलदार मेरे पास रहो
</poem>
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