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न मिल सका कहीं ढूंढे से भी निशान मेरा

तमाम रात भटकता रहा गुमान मेरा


मैं घर बसा के समंदर के बीच सोया था

उठा तो आग की लपटों में था मकान मेरा


जुनूं न कहिए उसे खुद अज़ीयती कहिए

बदन तमाम हुआ है लहूलुहान मेरा


हवाएं गर्द की सूरत उड़ा रही हैं मुझे

न अब ज़मीं ही मेरि है न आसमान मेरा


धमक कहीं हो लरज़ती हैं खिड़कियां मेरी

घटा कहीं हो टपकता है सायबान मेरा


मुसीबतों के भंवर में पुकारते हैं मुझे

अजीब लोग हैं लेते हैं इम्तेहान मेरा


किसे खुतूत लिखूं हाले दिल सुनाऊँ किसे

न कोई हर्फ शनासा न हमजु़बान मेरा