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गाँव की धूल भरी गलियोँ गलियों से शहर की सड़कों तकठोकर खाते -खाते आए हैँ हैं हम सपनों तक
बात शुरू की ज़िक्र से तेरे, मैख़ाने में पर
चलते-चलते आ पहुँचे हम दिल के ज़ख़्मोँ ज़ख्मों तक
कितनी रातें जाग के काटीं पूछो तो हमसे
वक़्त लगा कितना आने में उनके होटों होंठों तक
कितना ही मैं ख़ुद को छुपाऊँ कितना ही बहलाऊँ
आँसू आ ही जाते हैँ हैं पर मेरी पलकों तक
रोज़ ग़ज़ल का फूल लगा देते ज़ुल्फ़ों मेँ में हम
अगर हमारे हाथ पहुँचते उनकी ज़ुल्फ़ों तक
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