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|रचनाकार=दिनकर
}}
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<poem>
'''प्रेम का सौदा'''
सत्य का जिसके हृदय में प्यार हो,
एक पथ, बलि के लिए तैयार हो ।
::फूँक दे सोचे बिना संसार को,
::तोड़ दे मँझधार जा पतवार को ।
कुछ नई पैदा रगों में जाँ करे,
कुछ अजब पैदा नया तूफाँ करे।
::हाँ, नईं दुनिया गढ़े अपने लिए,
::रैन-दिन जागे मधुर सपने लिए ।
बे-सरो-सामाँ रहे, कुछ गम नहीं,
कुछ नहीं जिसको, उसे कुछ कम नहीं ।
::प्रेम का सौदा बड़ा अनमोल रे !
::निःस्व हो, यह मोह-बन्धन खोल रे !
मिल गया तो प्राण में रस घोल रे !
पी चुका तो मूक हो, मत बोल रे !
::प्रेम का भी क्या मनोरम देश है !
::जी उठा, जिसकी जलन निःशेष है ।
जल गए जो-जो लिपट अंगार से,
चाँद बन वे ही उगे फिर क्षार से ।
::प्रेम की दुनिया बड़ी ऊँची बसी,
::चढ़ सका आकाश पर विरला यशी।
हाँ, शिरिष के तन्तु का सोपान है,
भार का पन्थी ! तुम्हें कुछ ज्ञान है ?
::है तुम्हें पाथेय का कुछ ध्यान भी ?
::साथ जलने का लिया सामान भी ?
बिन मिटे, जल-जल बिना हलका बने,
एक पद रखना कठिन है सामने ।
::प्रेम का उन्माद जिन-जिन को चढ़ा,
::मिट गए उतना, नशा जितना बढ़ा ।
मर-मिटो, यह प्रेम का शृंगार है।
बेखुदी इस देश में त्योहार है ।
::खोजते -ही-खोजते जो खो गया,
::चाह थी जिसकी, वही खुद हो गया।
जानती अन्तर्जलन क्या कर नहीं ?
दाह से आराध्य भी सुन्दर नहीं ।
::‘प्रेम की जय’ बोल पग-पग पर मिटो,
::भय नहीं, आराध्य के मग पर मिटो ।
हाँ, मजा तब है कि हिम रह-रह गले,
वेदना हर गाँठ पर धीरे जले।
::एक दिन धधको नहीं, तिल-तिल जलो,
::नित्य कुछ मिटते हुए बढ़ते चलो ।
पूर्णता पर आ चुका जब नाश हो,
जान लो, आराध्य के तुम पास हो।
::आग से मालिन्य जब धुल जायगा,
::एक दिन परदा स्वयं खुल जायगा।
आह! अब भी तो न जग को ज्ञान है,
प्रेम को समझे हुए आसान है ।
::फूल जो खिलता प्रल्य की गोद में,
::ढूँढ़ते फिरते उसे हम मोद में ।
बिन बिंधे कलियाँ हुई हिय-हार क्या?
कर सका कोई सुखी हो प्यार क्या?
::प्रेम-रस पीकर जिया जाता नहीं ।
::प्यार भी जीकर किया जाता कहीं?
मिल सके निज को मिटा जो राख में,
वीर ऐसा एक कोई लाख में।
::भेंट में जीवन नहीं तो क्या दिया ?
::प्यार दिल से ही किया तो क्या किया ?
चाहिए उर-साथ जीवन-दान भी,
प्रेम की टीका सरल बलिदान ही।
१९३५
</poem>
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'''प्रेम का सौदा'''
सत्य का जिसके हृदय में प्यार हो,
एक पथ, बलि के लिए तैयार हो ।
::फूँक दे सोचे बिना संसार को,
::तोड़ दे मँझधार जा पतवार को ।
कुछ नई पैदा रगों में जाँ करे,
कुछ अजब पैदा नया तूफाँ करे।
::हाँ, नईं दुनिया गढ़े अपने लिए,
::रैन-दिन जागे मधुर सपने लिए ।
बे-सरो-सामाँ रहे, कुछ गम नहीं,
कुछ नहीं जिसको, उसे कुछ कम नहीं ।
::प्रेम का सौदा बड़ा अनमोल रे !
::निःस्व हो, यह मोह-बन्धन खोल रे !
मिल गया तो प्राण में रस घोल रे !
पी चुका तो मूक हो, मत बोल रे !
::प्रेम का भी क्या मनोरम देश है !
::जी उठा, जिसकी जलन निःशेष है ।
जल गए जो-जो लिपट अंगार से,
चाँद बन वे ही उगे फिर क्षार से ।
::प्रेम की दुनिया बड़ी ऊँची बसी,
::चढ़ सका आकाश पर विरला यशी।
हाँ, शिरिष के तन्तु का सोपान है,
भार का पन्थी ! तुम्हें कुछ ज्ञान है ?
::है तुम्हें पाथेय का कुछ ध्यान भी ?
::साथ जलने का लिया सामान भी ?
बिन मिटे, जल-जल बिना हलका बने,
एक पद रखना कठिन है सामने ।
::प्रेम का उन्माद जिन-जिन को चढ़ा,
::मिट गए उतना, नशा जितना बढ़ा ।
मर-मिटो, यह प्रेम का शृंगार है।
बेखुदी इस देश में त्योहार है ।
::खोजते -ही-खोजते जो खो गया,
::चाह थी जिसकी, वही खुद हो गया।
जानती अन्तर्जलन क्या कर नहीं ?
दाह से आराध्य भी सुन्दर नहीं ।
::‘प्रेम की जय’ बोल पग-पग पर मिटो,
::भय नहीं, आराध्य के मग पर मिटो ।
हाँ, मजा तब है कि हिम रह-रह गले,
वेदना हर गाँठ पर धीरे जले।
::एक दिन धधको नहीं, तिल-तिल जलो,
::नित्य कुछ मिटते हुए बढ़ते चलो ।
पूर्णता पर आ चुका जब नाश हो,
जान लो, आराध्य के तुम पास हो।
::आग से मालिन्य जब धुल जायगा,
::एक दिन परदा स्वयं खुल जायगा।
आह! अब भी तो न जग को ज्ञान है,
प्रेम को समझे हुए आसान है ।
::फूल जो खिलता प्रल्य की गोद में,
::ढूँढ़ते फिरते उसे हम मोद में ।
बिन बिंधे कलियाँ हुई हिय-हार क्या?
कर सका कोई सुखी हो प्यार क्या?
::प्रेम-रस पीकर जिया जाता नहीं ।
::प्यार भी जीकर किया जाता कहीं?
मिल सके निज को मिटा जो राख में,
वीर ऐसा एक कोई लाख में।
::भेंट में जीवन नहीं तो क्या दिया ?
::प्यार दिल से ही किया तो क्या किया ?
चाहिए उर-साथ जीवन-दान भी,
प्रेम की टीका सरल बलिदान ही।
१९३५
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