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09:06, 22 फ़रवरी 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=दिनकर
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'''जागरण'''
[''वसन्त के प्रति शिशिर की उक्ति'']
मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली !
खोल दृग, मधु नींद तज, तंद्रालसे, रूपसि विजन की !
साज नव शृंगार, मधु-घट संग ले, कर सुधि भुवन की ।
विश्व में तृण-तृण जगी है आज मधु की प्यास आली !
::मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली !
वर्ष की कविता सुनाने खोजते पिक मौन बोले,
स्पर्श कर द्रुत बौरने को आम्र आकुल बाँह खोले;
पंथ में कोरकवती जूही खड़ी ले नम्र डाली।
::मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली !
लौट जाता गंध वह सौरभ बिना फिर-फिर मलय को,
पुष्पशर चिन्तित खड़ा संसार के उर की विजय को ।
मौन खग विस्मित- ‘कहाँ अटकी मधुर उल्लासवाली ?’
::मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली !
मुक्त करने को विकल है लाज की मधु-प्रीति कारा;
विश्व-यौवन की शिरा में नाचने को रक्तधारा।
चाहती छाना दृगों में आज तज कर गाल लाली।
::मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली !
है विकल उल्लास वसुधा के हृदय से फूटने को,
प्रात-अंचल-ग्रंथि से नव रश्मि चंचल छूटने को ।
भृंग मधु पीने खड़े उद्यत लिये कर रिक्त प्याली ।
::मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली !
इंद्र की धनुषी बनी तितली पवन में डोलती है;
अप्सराएँ भूमि के हित पंख-पट निज खोलती है ।
आज बन साकार छाने उमड़ते कवि-स्वप्न आली !
::मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली !
१९३४
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