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12:29, 24 फ़रवरी 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मयंक अवस्थी
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<poem>
जब उसमें जोड़ के तुझको तुझे घटाते हैं
तेरे बयान का सच क्या है जान जाते हैं
ये संगे-मील, कहो, संगे-राह बन जाए
क़दम बढ़ाओ तो मंज़र बदल से जाते हैं
किसी का क़र्ज़ उतरने न देंगे इस दिल से
हरेक ज़ख्म को नासूर हम बनाते हैं
उदास दिल के शरारों को कहकशाँ कह के
ये आसमान हक़ीक़त कोई छिपाते हैं
ये नातवाँ करारी शिकस्त देता है
जब अपने दिल पे कोई ज़ोर आजमाते हैं
कभी मिली थी तिरी मंज़िले- मुराद कहीं
मेरे सफ़र में मराहिल तमाम आते हैं
नदी से प्यास बुझाएँ यही मुनासिब है
हम उसपे हर्फ़े-वफ़ा किसलिये बनाते हैं
खड़े थे दैरो -हरम उस गली के नुक्कड़ पे
जो साँकरी है मगर सरफ़रोश जाते हैं
</poem>
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