नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मयंक अवस्थी |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> अँधेरी रात मे…
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|रचनाकार=मयंक अवस्थी
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अँधेरी रात में आँखों पे पट्टी बन ही जाता है
अधूरा ख्वाब दिन चढ़ने पे मिट्टी बन ही जाता है
ज़रूरत से ज़ियादा राबता अच्छा नहीं होता
वो रिश्ता फिर घिसी साबुन की बट्टी बन ही जाता है
ज़रूरी क्या उसी पर चुटकुले हरदम गढ़े जायें
कभी सरदार भी जसपाल भट्टी बन ही जाता है
उन्हें इन्सानियत को प्यार करना कौन सिखलाये
कोई मज़हब नयी नस्लों की घुट्टी बन ही जाता है
चलो ये शुक्र है मंगल में बीतीं चार घड़ियां भी
कोई इतवार फिर जीवन की छुट्टी बन ही जाता है
ज़ियादा चाशनी में एक दिन कीड़े भी पड़ते हैं
जो जिगरी यार था वो याद खट्टी बन ही जाता है
पितामह भीष्म से इक जन्म का बदला चुकाने को
शिखण्डी आखिरश अर्जुन की टट्टी* बन ही जाता है</poem>