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|रचनाकार=दिनकर
}}
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<poem>
'''स्वर्ण घन'''
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!
बरसो, बरसो, भरें रंग से निखिल प्राण-मन हे!
::भींगे भुवन सुधा-वर्षण में,
::उगे इन्द्र-धनुषी मन-मन में;
भूले क्षण भर व्यथा समर-जर्जर विषण्ण जन हे!
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!
::गरजे गुरु-गंभीर घनाली,
::प्रमुदित उड़ें मराल-मराली,
खुलें जगत के जड़ित-अन्ध रस के वातायन हे!
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!
::बरसे रिम-झिम रंग गगन से,
::भींगे स्वप्न निकल मन-मन से,
करे कल्पना की तरंग पर मानव नर्तन हे!
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!
::जय हो, रंजित धनुष बढ़ाओ,
::भू को नभ के साथ मिलाओ,
भरो, भरो, भू की श्रुति में निज अनुरंजन स्वन हे!
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!
१९५१
</poem>
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|रचनाकार=दिनकर
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'''स्वर्ण घन'''
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!
बरसो, बरसो, भरें रंग से निखिल प्राण-मन हे!
::भींगे भुवन सुधा-वर्षण में,
::उगे इन्द्र-धनुषी मन-मन में;
भूले क्षण भर व्यथा समर-जर्जर विषण्ण जन हे!
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!
::गरजे गुरु-गंभीर घनाली,
::प्रमुदित उड़ें मराल-मराली,
खुलें जगत के जड़ित-अन्ध रस के वातायन हे!
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!
::बरसे रिम-झिम रंग गगन से,
::भींगे स्वप्न निकल मन-मन से,
करे कल्पना की तरंग पर मानव नर्तन हे!
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!
::जय हो, रंजित धनुष बढ़ाओ,
::भू को नभ के साथ मिलाओ,
भरो, भरो, भू की श्रुति में निज अनुरंजन स्वन हे!
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!
१९५१
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