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|रचनाकार=रमा द्विवेदी
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सूना है मन का अंगना ,अपना नहीं कोई है,<br> हर सांस डगमगाती सी बेसुध हुई हुई है। <br><br>  गिरती है पर्वतों से ,सरपट वो दौडती है,<br> प्रिय से मिलन को देखो पागल हुई हुई है।<br><br>  बदरी की बिजुरिया सी, अम्बर की दुलहनियां सी,<br> बरसी है जब उमड कर सतरंग हुई हुई है।<br><br>   चन्दा की चांदनी सी,तारों की झिलमिली सी,<br> उतरी है जब जमीं पर शबनम हुई हुई है। <br><br>  बाहों में प्रिय के आके हर दर्द भूल जाती,<br> दिल में समायी ऐसे सरगम हुई हुई है।<br><br>  इक बूंद के लिए ही बनती है वो दीवानी,<br> इक बूंद जब मिली तो मुक्ता हुई हुई है।<br><br>
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