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|रचनाकार=शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान|संग्रह=तपती रेती प्यासे शंख / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान
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<poem>
इस बस्ती का आलम यारों
बड़ा निराला है,
तेल चमेली का लगता है
काली बिल्ली नोच रही है
पंख कबूतर के,
दीपक पी जाता खुद ख़ुद हीअपना उजियाला है। जैसे मियां मियाँ काठ का वैसी
सन की दाढ़ी है,
चोर सिपाही की आपस मे
यारी गाढ़ी है,
अपना उल्लू सीधा करना
राजा अंधा है,
पढ़े लिखों के मुंह मुँह सुविधा कालटका ताला है।है ।
इस बस्ती का आलम यारों
बड़ा निराला है।। है ।
</poem>