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'''कला-तीर्थ'''
:::::[१]
पूर्णचन्द्र-चुम्बित निर्जन वन,
विस्तृत शैल प्रान्त उर्वर थे;
मुशृणमसृण, हरित, दूर्वा-सज्जित पथ,
वन्य कुसुम-द्रुम इधर-उधर थे।
::पहन सुक्र क शुक्र का कर्ण-विभूषण
::दिशा-सुन्दरा रूप-लहर से
::मुक्त-कुन्तला मिला रही थी
::अवनी को ऊँचे अम्बर से।
कला-तीर्थ को मैं जता जाता था
एकाकी वनफूल-नगर में,
सहसा दीख पड़ी सोने की
ढुलक रहे जल-कण पुरइन में,
हलके यौवन थिरक रहा था
ओस-कणों-सा गान-प्वन पवन में।
::मैंने कहा, "कौन तुम वन में
::रूप-कोकिला बन गाती हो,
::इस वसन्त-वन के यौवन पर
::निज यौवन-रस बरसाति बरसाती हो?’
वह बोली, "क्य क्या नहीं जानते?मैं सुन्दरआ सुन्दरता चिर-सुकुमारी,
अविरत निज आभा से करती
आलोकित जगती की क्यारी।
::मैं अस्फुट यौवन का मधु हूँ,
::मदभॊरीमदभरी, रसमयी, नवेली
::प्रेममयी तरुणी का दृग-मद,
::क्वियों कवियों की कव्ता कविता अलबेली।
वृन्त-वृन्त पर मैं कलिका हूँ,
क्षितिज छोड़कर मध्य गगन में,
पर, देखूँ कैसे उसकी छवि?
कहीं, हार होजाय हो जाय न रण में!
::कुछ दूरी चल उस निर्जन में
::मैंने कहा, ‘कौन तुम?’ बोला,
::वह, "कर्त्त्व्यकर्तव्य, सत्य का प्यारा।
::उपवन को सींचने लिए
::जाता हूँ यह निर्झर की धारा।
::बाधाएँ घेरतीं मुझे, पर,
::मैं निर्भय नित मुसकाता हूँ।
::कुचल चुलिशकुलिश-कंटक-जलों जालों को,
::लक्ष्य-ओर बढ़ता जाता हूँ।
::वह तर हुआ कर्म में अपने,
::मैं श्रम-शिथिल बढ़ा नि निज पथ पर।::"सुंदरता य स्त्य या सत्य श्रेष्ठ है?"""::उठने लगा द्वन्द्व पग-पग पर।
सुन्दरता आनन्द-मूर्ति है,
प्रेम-नदि नदी मोहक, मतवाली।कर्म-कुसुम के बिना किन्थकिन्तु, क्या
भर सकती जीवन की डाली?
::एकाकी कर्त्तव्य-नगर से।
:::::[३]कुछ क्षण बाद मिला फ्र फिर पथ में
गंध-फूल-दूर्वामय प्रान्तर।
हरी-भरी थी शैल-तटी, त्यों,
सघन रत्न-भूफ्हित भूषित नीलाम्बर।
::दूबों की नन्हीं फुनगी पर
राशि-राशि वन-फूल खिले थे,
पुलकस्पन्दित वन-हृत्‌-शतदशतदल;
दूर-दूर तक फहर रहा था
श्यामल शैलतटी का अंचल।
::एक बिन्दु पर मिले मार्ग दो
::आकर दो प्रतिकूल विजन से;
::स्म्गम संगम पर था भवन कला का
::सुन्दर घनीभूत गायन-से।
जिधर अमर छवि लहराती है;
उधर सत्य की प्रभा प्रेम बन
बिसुध बेसुध - सी दौड़ी जाती है।
::प्रेमाकुल जब हृदय स्वयं मिट
::दर्शन देता उसे स्वयं तब
::सुन्दर बनकर सत्य निरामय।"
::: *** *** ***
देखा, कवि का स्वप्न मधुर था,
उमड़ी अमिय धार जीवन में;
पूर्णचन्द्र बन चमक रहे थे
‘सुव‘शिव-सुन्दर’ ‘आनन्द’-गगन में।
::मानवता देवत्व हुई थी,
::कला-तीर्थ में आज मिला था
::महा सत्य भावुक सुन्दर से।
:::: *
फूँक दे जो प्राम प्राण में उत्तेजना,
गुण न वह इस बाँसुरी की तान में।
जो चकित करके कँपा डाले हृदय,
देख क्षण-क्षण मैं सहमता हूँ अरे,
व्यापिनी निस्सारता स्म्सार संसार की,एक पल ठरे ठहरे जहाँ जग ही अभय,
खोज करता हूँ उसी आधार की।
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