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बिहार में काँग्रेस-मंत्रिमण्डल बन जाने के बाद 2 दिसम्बर 1937 ई. से आप वहाँ के पब्लिसिटी ऑफ़ीसर के पद पर नियुक्त किए गए। 1939 ई. में काँग्रेस ने मंत्रिमण्डल से त्याग-पत्र दिया तो आप भी त्यागपत्र देने को प्रस्तुत हो गए, किन्तु देशरत्न राजेन्द्र बाबू (राष्ट्रपति) ने आपको त्याग-पत्र नहीं देने दिया। 12 अगस्त 1942 ई. में राष्ट्रपिता महात्मा गान्धी बन्दी बनाए गए तो आपने त्याग-पत्र देते हुए लिखा-
‘‘शहीदों के ख़ून की रौशनाई में अपना क़लम डुबो कर मैं हुकूमते-बरतानिया की पब्लिसिटी नहीं करना चाहता।’’
'''जमील मज़हरी के बारे में एक संस्मरण'''
बात जमील मज़हरी की चली, तो एक क़िस्सा याद आया। मेरे दोस्त और सुपरिचित शायर शानुर रहमान अक्सर इसे सुनाया करते हैं। शानुर प्रख्यात कथाकार सुहैल अज़ीमाबादी के सुपुत्र हैं। बात सन् साठ के आसपास की है। उन दिनों सुहैल साहेब आकाशवाणी दिल्ली में बतौर उर्दू प्रोड्युसर पदस्थापित थे। जमील मज़हरी दिल्ली पहुंचे और सुहैल साहेब के घर ठहरे। उन्होंने पंडित नेहरु से मिलने की इच्छा प्रकट की। सुहैल साहेब भागे-भागे दिनकरजी के पास पहुंचे। दिनकरजी पंडित नेहरु के बहुत निकट थे और जमील मज़हरी का भी बहुत आदर करते थे। सुहैल अज़ीमाबादी को तो वे छोटे भाई की तरह प्यार करते थे। उन्होंने पंडित नेहरु को जमील मज़हरी के बारे में बताया और मिलने का आग्रह किया। अंततः मिलने की तिथि तय हो गई। निर्धारित समय पर दिनकरजी, जमील मज़हरी और सुहैल अज़ीमाबादी के साथ प्रधानमंत्री आवास पहुंचे। चार कुर्सियां और बीच में एक छोटी मेज़। तीनों बैठे। चौथी कुर्सी पंडित नेहरु के लिए थी। पंडितजी आए। जमील मज़हरी से परिचय हुआ। उन्होंने हालचाल और आने का कारण पूछा। जमील मज़हरी ने कहा, ‘बस ऐसे ही आपसे मिलने, आपको नज़दीक से देखने चला आया।’ फिर पंडित नेहरु ने दिनकरजी से बातचीत शुरू की। इस बीच जमील मज़हरी कुर्सी पर बैठे-बैठे गहरी नींद में सो गए। दिनकरजी और सुहैल साहेब के तो होश उड़ गए, पर जमील मज़हरी की नींद कोई मामूली नींद तो थी नहीं, जो खुल जाती। दोनों उनकी तबीयत से परिचित थे। पंडित नेहरु ने जमील मज़हरी की ओर देखा और दिनकरजी की परेशानी भांपते हुए फुसफुसाकर बोले, ‘सोने दो। बहुत थके हुए लग रहे हैं।’ उन्होंने धीमे स्वर में दिनकरजी से अपनी बातचीत पूरी की और चले गए।
ऐसा था उस्ताद शायर जमील मज़हरी का व्यक्तित्व। जो शख़्स नेहरु से मिलने जाए और वहीं, उनके सामने ही बिना कोई बातचीत किए सो जाए, उसके निष्कलुष साहस का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। बाद में शायद उन्होंने बताया कि वह तो अपने महबूब लीडर से सिर्फ़ मिलने गए थे। कुछ मांगने तो गए नहीं थे! मिलते ही सकून आ गया और फिर नींद आ गई। शानुर रहमान का कहना है कि सुहैल साहेब ने बताया था कि जमील मज़हरी को उस दिन ज़माने बाद नींद आई थी।
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