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{{KKRachna
|रचनाकार=दिनकर
}}
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<poem>
'''विधवा'''
जीवन के इस शून्य सदन में
जलता है यौवन-प्रदीप; हँसता तारा एकान्त गगन में।
:::::जीवन के इस शून्य सदन में।
::पल्लव रहा शुष्क तरु पर हिल,
::मरु में फूल चमकता झिलमिल,
ऊषा की मुस्कान नहीं, यह संध्या विहँस रही उपवन में।
:::::जीवन के इस शून्य सदन में।
::उजड़े घर, निर्जन खँडहर में
::कंचन-थाल लिये निज कर में
रूप-आरती सजा खड़ी किस सुन्दर के स्वागत-चिन्तन में?
:::::जीवन के इस शून्य सदन में।
::सूखी-सी सरिता के तट पर
::देवि! खड़ी सूने पनघट पर
अपने प्रिय-दर्शन अतीत की कविता बाँच रही हो मन में?
:::::जीवन के इस शून्य सदन में।
::नव यौवन की चिता बनाकर,
::आशा-कलियों को स्वाहा कर
भग्न मनोरथ की समाधि पर तपस्विनी बैठी निर्जन में।
:::::जीवन के इस शून्य सदन में।
१९३१
</poem>
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|रचनाकार=दिनकर
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<poem>
'''विधवा'''
जीवन के इस शून्य सदन में
जलता है यौवन-प्रदीप; हँसता तारा एकान्त गगन में।
:::::जीवन के इस शून्य सदन में।
::पल्लव रहा शुष्क तरु पर हिल,
::मरु में फूल चमकता झिलमिल,
ऊषा की मुस्कान नहीं, यह संध्या विहँस रही उपवन में।
:::::जीवन के इस शून्य सदन में।
::उजड़े घर, निर्जन खँडहर में
::कंचन-थाल लिये निज कर में
रूप-आरती सजा खड़ी किस सुन्दर के स्वागत-चिन्तन में?
:::::जीवन के इस शून्य सदन में।
::सूखी-सी सरिता के तट पर
::देवि! खड़ी सूने पनघट पर
अपने प्रिय-दर्शन अतीत की कविता बाँच रही हो मन में?
:::::जीवन के इस शून्य सदन में।
::नव यौवन की चिता बनाकर,
::आशा-कलियों को स्वाहा कर
भग्न मनोरथ की समाधि पर तपस्विनी बैठी निर्जन में।
:::::जीवन के इस शून्य सदन में।
१९३१
</poem>