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{{KKRachna
|रचनाकार=दिनकर
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
'''संजीवन-घन दो'''
जो त्रिकाल-कूजित संगम है, वह जीवन-क्षण दो,
मन-मन मिलते जहाँ देवता! वह विशाल मन दो।
::माँग रहा जनगण कुम्हलाया
::बोधिवृक्ष की शीतल छाया,
सिरजा सुधा, तृषित वसुधा को संजीवन-घन दो।
मन-मन मिलते जहाँ देवता! वह विशाल मन दो।
::तप कर शील मनुज का साधें,
::जग का हृदय हृदय से बाँध,
सत्य हेतु निष्ठा अशोक की, गौतम का प्रण दो।
मन-मन मिलते जहाँ देवता! वह विशाल मन दो।
::देख सकें सब में अपने को,
::महामनुजता के सपने को,
हे प्राचीन! नवीन मनुज को वह सुविलोचन दो।
मन-मन मिलते जहाँ देवता! वह विशाल मन दो।
::खँडहर की अस्तमित विभाओ,
::जगो, सुधामयि! दरश दिखाओ,
पीड़ित जग के लिए ज्ञान का शीतल अंजन दो।
मन-मन मिलते जहाँ देवता! वह विशाल मन दो।
१९५१
</poem>
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|रचनाकार=दिनकर
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<poem>
'''संजीवन-घन दो'''
जो त्रिकाल-कूजित संगम है, वह जीवन-क्षण दो,
मन-मन मिलते जहाँ देवता! वह विशाल मन दो।
::माँग रहा जनगण कुम्हलाया
::बोधिवृक्ष की शीतल छाया,
सिरजा सुधा, तृषित वसुधा को संजीवन-घन दो।
मन-मन मिलते जहाँ देवता! वह विशाल मन दो।
::तप कर शील मनुज का साधें,
::जग का हृदय हृदय से बाँध,
सत्य हेतु निष्ठा अशोक की, गौतम का प्रण दो।
मन-मन मिलते जहाँ देवता! वह विशाल मन दो।
::देख सकें सब में अपने को,
::महामनुजता के सपने को,
हे प्राचीन! नवीन मनुज को वह सुविलोचन दो।
मन-मन मिलते जहाँ देवता! वह विशाल मन दो।
::खँडहर की अस्तमित विभाओ,
::जगो, सुधामयि! दरश दिखाओ,
पीड़ित जग के लिए ज्ञान का शीतल अंजन दो।
मन-मन मिलते जहाँ देवता! वह विशाल मन दो।
१९५१
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