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06:43, 7 मार्च 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=दिनकर
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<poem>
'''सावन में'''
जेठ नहीं, यह जलन हृदय की,
उठकर जरा देख तो ले;
जगती में सावन आया है,
मायाविन! सपने धो ले।
जलना तो था बदा भाग्य में
कविते! बारह मास तुझे;
आज विश्व की हरियाली पी
कुछ तो प्रिये, हरी हो ले।
नन्दन आन बसा मरु में,
घन के आँसू वरदान हुए;
अब तो रोना पाप नहीं,
पावस में सखि! जी भर रो ले।
अपनी बात कहूँ क्या! मेरी
भाग्य-लीक प्रतिकूल हुई;
हरियाली को देख आज फिर
हरे हुए दिल के फोले।
सुन्दरि! ज्ञात किसे, अन्तर का
उच्छल-सिन्धु विशाल बँधा?
कौन जानता तड़प रहे किस
भाँति प्राण मेरे भोले!
सौदा कितना कठिन सुहागिनि!
जो तुझ से गँठ-बन्ध करे;
अंचल पकड़ रहे वह तेरा,
संग-संग वन-वन डोले।
हाँ, सच है, छाया सुरूर तो
मोह और ममता कैसी?
मरना हो तो पिये प्रेम-रस,
जिये अगर बाउर हो ले।
</poem>