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'''कत्तिन का गीत'''

कात रही सोने का गुन चाँदनी रूप-रस-बोरी;
कात रही रुपहरे धाग दिनमणि की किरण किशोरी।
घन का चरखा चला इन्द्र करते नव जीवन दान;
तार-तार पर मैं काता करती इज्जत-सम्मान।

हरी डार पर श्वेत फूल, यह तूल-वृक्ष मन भाया;
श्याम हिन्द हिम-मुकुट-विमणिडत खेतों में मुस्काया।
श्वेत कमल-सी रूई मेरी, मैं कमला महारानी;
कात रही किस्मत स्वदेश की क्षीरोदधि की रानी।

वह घर्घर का नाद कि चरखे की बुलबुल की लय है?
यह रूई का तार कि फूटा जग-जननी का पय है?
धाग-धाग में निहित निःस्व, रिक्तों का धन-संचय है;
तार-तार पर चढ़ कर चलती कोटि-कोटि की जय है।

बोल काठ की बुलबुल, मुँह का कौर न रहे अलोना;
सैटिन पर बह जाय नहीं पानी-सा चाँदी-सोना।
एक तार भी कात सुहागिन, यह भी नहीं अकाज;
स्यात छिपा दे यही नग्न के किसी रोम की लाज।
::मधुर चरखे का घर्घर गान,
::देश का धाग-धाग कल्याण।




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